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इतिहास मेँ सिमटी पुरानी सभ्यताएं ,
क्षीण होती जा रही संवेदनाएं ।
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जिंदगी का बोझ ढोते देशवासी ,
बहुत मुश्किल से जुटाते दाल रोटी ।
भूख से मासूम बचपन कुलबुलाए ,
क्षीण होती जा रही संवेदनाएं ।
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घिस रही रिश्तों की कच्ची डोर भी ,
रोज ही कमजोर होती जा रही ।
नग्न होती जा रही अब वर्जनाएं ,
क्षीण होती जा रही संवेदनाएं ।
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वृद्धजन लाचार हैं जाएं कहां ,
परिवार में अपनत्व मिटता जा रहा ।
जिंदगी की शाम कैसे जगमगाए ,
क्षीण होती जा रही संवेदनाएं ।
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राजनीति के घिनौने खेल में ,
व्यक्ति का अस्तित्व केवल वोट में ।
मिट रही हैं देशभक्ति भावनाएं ,
क्षीण होती जा रही संवेदनाएं ।
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अन्न के भण्डार जो भरता रहा ,
वह कृषक लाचार क्योँ है आज भी ,
कब थमेगी खुदकुशी की श्रृंखलाएं ,
क्षीण होती जा रही संवेदनाएं ।
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इतिहास मेँ सिमटी पुरानी सभ्यताएं ,
क्षीण होती जा रही संवेदनाएं ।
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– सुरेन्द्रपाल वैद्य
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