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‘contest’ राष्ट्रभाषा हिन्दी भारत की पहचान

शब्दस्वर
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भारत विश्व के सर्वाधिक प्राचीनत्तम राष्ट्रों में से एक है। इसकी धरती पर अनेक सभ्यतायें जन्मी, फली फूली तथा विकास के नए आयाम छूकर पूरे विश्व का मार्गदर्शन करती रही हैं। ज्ञान, विज्ञान के विकास और नैतिक जीवन मूल्यों के सर्वश्रेष्ठ आदर्श यहां स्थापित हुए हैं। वेद, उपनिषद्, रामायण तथा महाभारत जैसे अनेक महान संस्कृत ग्रन्थों की रचना इसी भारत भूमि पर हुई। संस्कृत भाषा से ही यहां की अनेक क्षेत्रीय भाषाएं जन्मी, फली फूली तथा साहित्य रचना के अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किये। इसी की ऊर्जा ने नृत्य, संगीत, वास्तुकला, चित्रकला तथा जन साहित्यों को गरिमामय स्थान प्रदान किये।
कालान्तर में विश्व के अन्य समुदायों में भारत के प्रति आकर्षण बढ़ता गया तथा यहाँ की सभ्यता, संस्कृती व अकूत धन दौलत पर उनकी गृद्ध दृष्टि पड़नी प्रारम्भ हुई। इसीसे औपनिवेशिक मनोवृति विकसित हुई जिसने भारतीय संस्कृति व सभ्यता पर अपना असर दिखाया। प्रारंभ में तो ये लोग आक्रमण कर यहां की धन दौलत को लूटते रहे तथा अपने वतन ले जाते रहे।
फिर ये लुटेरे मुगल यहां के शासक बन बैठे। इन्होंने यहाँ की सभ्यता संस्कृति के भयानक विनाश करने के साथ साथ उन्नत भाषाओं को भी समाप्त करने की पूरी कोशिश की। शक्ति तथा राजसत्ता के बल पर उर्दू की शिक्षा को बढ़ावा दिया। इन मुस्लिमों के शासन काल में ही यूरोपियनों के साथ अंग्रेजों का आगमन हुआ। इसीके साथ प्रारम्भ हुआ भारतीय सभ्यता और संस्कृति को योजनाबद्ध ढंग से समाप्त करने का षडयन्त्र। ये विदेशी इस बात को भली भांति जानते थे कि भारत को हमेशा के लिये गुलाम बनाये रखने के लिये यहाँ की शिक्षा और उन्नत भाषाओं को नष्ट करना आवश्यक है। लार्ड मैकाले की नीतियोँ के अनुसार एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था लागू की गई जो भारतीयों की राष्ट्रीय पहचान को समाप्त कर दे। लोगोँ के दिल और दिमाग को यहां की संस्कृति भाषा से काटकर अंग्रेजी भाषा, सभ्यता व पश्चिमी संस्कूति से जोड़कर एक स्वाभिमान शून्य पीढ़ियां तैयार की जा सके, जो केवल देखने में ही भारतीय लगेँ। और वे काफी सीमा तक इसमें सफल भी हुए।
आज वे अपनी प्राचीन संस्कृति तथा भाषा के स्वाभिमान की भावना से शून्य तथाकथित आधुनिक कहलाने वाले लोग ही हिन्दी का विरोध तथा अंग्रेजी के पक्षधर बने हुए हैं।
सैंकड़ों वर्षों की गुलामी के पश्चात जब हमारा देश स्वाधीन हुआ तो इसकी सत्ता उसी कांग्रेस के हाथों में आई जिसकी स्थापना 1885 मेँ एक अंग्रेज ए.ओ.ह्यूम ने की थी। इसकी स्थापना के पश्चात इसमें बहुत से देशभक्त भारतीय लोग आए जिनके कारण यह आजादी की लड़ाई लड़ने वाली पार्टी मे परिवर्तित हो गई। इसी में रहकर बाल गंगाधर तिलक, सुभाषचन्द्र बोस तथा सरदार पटेल जैसे लोगों ने भी काम किया था।
आजाद भारत की बागडोर नेहरू के हाथों मे आने के कारण देश की स्वदेशी पहचान को पर्याप्त उभार न मिल सका क्योँकि नेहरु के व्यक्तित्व और मन पर अंग्रेजी सभ्यता का पूरा प्रभाव था। इसी के कारण देश का शासन उसी राह पर चला जैसा अंग्रेज छोड़ गए थे। भारतीय संस्कृति की भंयकर उपेक्षा का शिकार इसकी भाषाएं भी हुई जिससे आज छह दशक बीत जाने के बाद भी देश के प्रशासनिक कार्यों में अंग्रेजी का ही बोलबाला है।
देश की प्रशासनिक सेवाओं मेँ जो अधिकारी आते हैं उनकी शिक्षा दीक्षा में अंग्रेजी का अंग्रेजी भाषा और सभ्यता का प्रभाव देखने में अधिक मिलता है।
आज तो देश में एक ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है कि देश के हर बच्चे को अंग्रेजी भाषा में निपुण होना होगा नहीँ तो वह जिन्दगी की दौड़ में पिछड़ जायेगा। इसी के परिणाम स्वरूप स्कूली शिक्षा में भी अंग्रेजी को वरीयता दी जाने लगी है। हिन्दी में बच्चों को गिनती भूलती जा रही है। दुकानदार किसी स्कूल के छात्र से सोलह रुपये मांगता है तो जवाब मिलता है कि अंकल वो कितने होते है, तब उसे सिक्सटीन बताकर समझाना पड़ता है। इसी प्रकार फलों, सब्जियों तथा अन्य वस्तुओं के लिए हिन्दी के शब्दों का प्रचलन कम होता जा रहा है। देश के होनहार ठीक ढंग से कोई भी भाषा नहीँ सीख पा रहे हैं।
अतः यह आवश्यक है कि शिक्षा के क्षेत्र में हिन्दी के महत्व को पहचाना जाए। स्कूली शिक्षा में अनिवार्य रूप से हिन्दी को लागू किया जाना चाहिए ताकि आगे चलकर यह हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान की भाषा बन सके।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य।

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