भारत में एक तरफ तो जहां क्रिकेट में लाखों-करोड़ों खर्च किए जाते हैं वहीं दूसरी तरफ भारत के कुछ ऐसे खेल भी हैं जहां खिलाड़ियों को उनका मेहनताना तो दूर खेल को खेलने की बुनियादी सुविधाएं भी मुश्किल से मिलती हैं. कुछ दिन पहले भारतीय महिला कबड्डी टीम को विश्व कप जीतने के बाद ऑटो में जाते देखा गया तो यह साफ हो गया कि इस देश में खेलों के प्रति कितना भेदभाव है. एक तरफ तो क्रिकेट टीम है जिसकी जीत पर देश में दीपावली तक का माहौल बन जाता है वहीं दूसरी तरफ कबड्डी जैसे खेलों पर कोई निगाह भी नहीं डालता. अब ताजा मामला आया है फुटबॉल का.
यूं तो भारत में दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल फुटबॉल की दीवानगी सिर्फ बंगाल और कोलकाता या गोवा जैसे राज्यों में देखने को मिलती है पर इस खेल में युवाओं की काफी रूचि है. इसलिए हर साल कई युवा इस खेल में कॅरियर बनाने और देश को फुटबॉल जगत की महाशक्ति बनाने के लिए कदम रखते हैं पर इस खेल की अस्त-व्यस्तता देख वह इससे दूर हो जाते हैं.
फुटबाल को भले ही दुनिया में सबसे लोकप्रिय खेल का दर्जा हासिल हो लेकिन भारत में इसकी दुर्गति का आलम यह है कि फुटबालरों को अपने जूते खरीदने के लिए क्रिकेट स्टेडियम की कुर्सियों को धोने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. जो यह दर्शाता करता है कि क्रिकेट की चकाचौंध और सरकार की अनदेखी के चलते दूसरे खेल किस कदर बेनूर होते जा रहे हैं.
भारत और वेस्टइंडीज के बीच आठ दिसंबर को होने वाले वनडे मैच के लिए होल्कर स्टेडियम में इन दिनों 15 प्रतिभाशाली फुटबाल खिलाड़ी करीब 18,000 कुर्सियों को धो-पोंछकर चमकाने के लिए पसीना बहा रहे हैं, ताकि वे खेल किट खरीदने की रकम जुटा सकें. हालांकि यह पहली बार नहीं है जब भारतीय फुटबॉलरों को क्रिकेट के मैदान पर सीटें साफ करते देखा गया है. इससे पहले भी आईपीएल के मैचों में यह खिलाड़ी यूं ही सीटें साफ करते दिखे थे.
अब आप क्या कहेंगे. इस देश में जो अमीर है वह दिनों-दिन अमीर होता जाता है तो वहीं गरीब गरीबी में ही दम तोड़ने को मजबूर होता जा रहा है. फुटबॉल, कुश्ती और कबड्डी जैसे हमारे पारंपरिक खेल अब गुम होने की कगार पर हैं और इसका सबसे प्रमुख कारण है इन खेलों में प्रायोजकों का ना मिलना.
आज हर तरफ बाजार फैला हुआ है. जिस खेल को प्रायोजकों का साथ मिल जाता है उसकी किस्मत चमक उठती है. क्रिकेट, टेनिस, बैडैमिंटन और यहां तक कि भारत में एफ वन रेसों को भी महंगे प्रायोजक मिल जाते हैं पर जब बात कबड्डी और फुटबॉल जैसे खेलों की आती है तो सब कन्नी काटते हैं. कोई कंपनी इन खेलों को अपने विज्ञापनों में दिखाने की हिम्मत नहीं करती. और करे भी क्यूं आखिर जब देश की सरकार और खेल विभाग ही इन खेलों को आगे बढ़ाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठा रहा तो बाजार क्यूं जोखिम उठाए. सरकार और खेल विभाग तो जैसे इन खेलों के प्रति अपना दायित्व भूल ही चुके हैं. कहीं ऐसा ना हो कि कुछ सालों में देश से कबड्डी, कुश्ती जैसे पारंपरिक खेल गुम ही हो जाएं !
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