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बच्चों की गूँज से क्यों सूनी हैं गलियां

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बच्चोंकीगूँजसेसूनीहैंक्योंगलियां

कहाँ गए वो गिल्ली-डंडे, कहाँ गयी वो आँख मिचौली

कहाँ गया वो हँसता बचपन, कहाँ गए वो गुड्डे-गुड़ियाँ

सूनी हैं आँगन गलियां अब,

मैदानों की परिधियाँ तो, कमरों तक ही सिमट गयीं

रंग बिरंगे खिलौने अब कम्पयूटर से बदल गए

गूंज नहीं है बच्चों की अब

सन्नाटा सा पसरा है….सन्नाटा सा पसरा है!!

“कैलाश कीर्ति (रश्मि) द्वारा  रचित…

 

‘बचपन’ कुदरत द्वारा मानवीय जीवन को मिली एक अमूल्य धरोहर जिसको हम सभी जी भर के जीते हैं और ताउम्र न भुलाने वाली निधियों के रूप में संयोजित कर अपने अंतरमन में समेट कर रख लेते हैं और इन्ही निधियों की कोठरी में से एक-एक कर किस्सों को निकालते हैं और बचपन के प्रवाह वेग से आगे निकल चुके युवा जीवन को सजाते और सवांरते रहते हैं, इतना ही नहीं हम सभी हमारे बचपन में हमें मिली दादी-नानी की सीख से इतना कुछ सीख जाते हैं कि उसी आधारशिला पर अपने भविष्य का ताना बाना बुन लेते हैं और तो और बचपन में संगी-साथियों के साथ हंसी ठिठोली में की गयी बातें भी हमारे चेतन व अवचेतन मन को उम्र के हर पड़ाव में गुदगुदाती रहती है और एकांत में बैठे हमारे उदासीन चेहरे को भी मुस्कान रूपी किरणों की चंचलता से शोभायमान कर देती हैं।

बचपन में हम सभी ने जी भर कर गिल्ली-डंडे, बैट-बाल, लुका-छिपी, आँख-मिचौली जैसे अनगिनत खेलों को खेलकर अपना बचपन जीया है, मिट्टी के बने वो रंग-बिरंगे खिलौने, वो दादी-नानी के साथ मेलों में जाकर घूमना ऐसी न जाने कितनी बाते हैं जो हम सभी के मन को संगीत की उस अनसुनी झंकार से झंकृत कर देती हैं जो कभी हमने सुनी थी।

परन्तु आज हम अपने वत्सल ह्रदय पर सच्चे मन से हाथ रख कर सोचें तो क्या हम ये तय कर पाएंगे कि वर्तमान परिस्थिति में हमारे स्नेह से सिंचित किये जा रहे आज के बालमन को क्या हम वही बचपन दे पा रहे हैं; जिनकी यादें उन्हें उम्र भर गुदगुदा पाएंगी। क्या है? उनके यादों के खजानो में जो वे आने वाली पीढ़ियों से हमारे तरह ही बांट पाएंगे।

ये हमने उन्हें आधुनिकता और विकसित कहलाने की चाह में क्या दे दिया है, कंप्यूटर और मोबाइल!  अधाधुंध बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने हमारे जीवन को तो पहले ही उद्वेलित कर रखा था और उसी उद्वेग को हमने अपने बच्चों में प्रेषित कर दिया है। ये संसाधन भले ही उन्हें कुछ अच्छी और उपयोगी चीजें सीखा रहे हैं परन्तु उसके बदले वे उस बचपन, उस संग-साथ, उस परिवार की भावना को भी उनसे छीन रहे हैं जो सदियों से बच्चों की अनमोल धरोहर रही है।

वो साथियों की टोलियां बनाकर घूमना, त्यौहार का बेसब्री से इंतज़ार और आने पर उसके एक-एक पल को जी लेना, दादा-दादी के गोद की सानिध्य में बैठकर किस्से कहानियों का सुनना, नाना-नानी के घर जाने का इंतज़ार, वे मस्तानी गर्मी की छुट्टियों का बर्फ के गोले खाने का इंतज़ार, बाल कहानियों से पुस्तकों और कॉमिक्स के लिए माता-पिता से मिलने वाली पॉकेट मनी का इंतज़ार ऐसी ही न जाने कितनी बातें जो अब सिमटकर कंप्यूटर और मोबाइल के कीबोर्ड तक ही रह गयी हैं।

 

अब न मैदानों में वो हलचल है, न ही कमरों के बाहर बच्चों की वो गूँज और न ही उनके पीछे आनेवाली दादा-दादी और नाना-नानी के सख्त तल्खियां हैं—सब कुछ बदल सा गया है, बच्चों की गूँज में छाए सन्नाटे के साथ अब सब सूना-सूना सा है!!!!

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