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children’s day special stories : पतंगवाला

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happy children dayगली रामनाथ में एक ही पेड़ था. वह बरगद का पेड़ पुरानी मसजिद की टूटी दीवार के बीच से निकला हुआ था. अली की पतंग उसकी टहनियों में फंस गई थी. फटी कमीज पहने, छोटा सा अली, नंगे पैरों से गली में लगे पत्थरों को पार करता हुआ, अपने दादा के पास पहुंचा. उसका दादा अपने पिछवाड़े के आंगन में, धूप में बैठा हुआ, ऊंघ रहा था.


‘‘दादाजान!’’ लड़के ने पुकारा, ‘‘मेरी पतंग गई!’’ बूढ़ा दादा अपने स्वप्न से झटके से जगा. उसने अपना सिर ऊपर उठाया. उसकी बहुत बड़ी दाढ़ी, जो कि बुर्राक सफेद होनी चाहिए थी, लाल दिख रही थी, मेंहदी में रंगे होने की वजह से.


‘‘क्या मांझा टूट गया?’’ बूढ़े ने पूछा, ‘‘पहले जैसी डोर अब कहां मिलती है?’’


‘‘नहीं, नहीं दादाजान! मेरी पतंग बरगद के पेड़ में फंस गई.’’


बुढ्डा जोर से हंसा. ‘‘तुम्हें ठीक से पतंग उड़ाना सीखना है अभी, मेरे बच्चे! मुश्किल तो यह है कि मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूं. तुम्हें सिखा नहीं सकता. पर तुम्हें एक नई पतंग जरूर दूंगा.’’


उसने उसी समय पतले काग़ज और रेशम की एक नई पतंग बना कर धूप में सूखने के लिए रखी थी. गुलाबी रंग की हरे पुछल्ले वाली पतंग. बूढ़े ने वह पतंग अली को दे दी और अली ने अपने नन्हें पंजों के बल उचक कर दादा का पोपला मुंह चूम लिया.


‘‘इस पतंग को नहीं खोऊंगा,’’ उसने कहा. ‘‘चिड़िया जैसी उड़ेगी यह पतंग.’’ और अपनी एड़ियों पर घूम कर, कूदता हुआ आंगन से बाहर निकल गया.

महादेवी वर्मा की कहानी: बिन्दा


बूढ़ा धूप में बैठा सपने देखता रहा. उसकी पतंगों की दुकान कब की ख़त्म हो चुकी थी, एक कबाड़ी ने वह जगह ख़रीद ली थी. अपना दिल बहलाने के लिए वह पतंगें अभी भी बनाता था, जिससे उसके पोते का भी फ़ायदा होता था. बहुत कम लोग अब पतंग ख़रीदते थे. बड़े तो उन्हें बहुत मामूली चीज मानते थे, और बच्चे पैसा पाने पर सिनेमा देखना पसंद करते थे. सबसे बड़ी बात तो यह थी कि पतंग उड़ाने के लिए कोई खुली जगह ही नहीं रह गई थी. जो खुला घास का मैदान पुराने किले से लेकर नदी किनारे तक फैला था, उस सारे मैदान को शहर निगल गया था.


बूढ़े को वह पुराना जमाना याद आता था, जब बड़े-बड़े लोग पतंग लड़ाते थे, पतंगें आसमान में तेज़ी से घूमती थीं और झपट्टा मारती थीं. एक दूसरे के धागे से फंस कर खिंचती जाती थीं, जब तक कि एक पतंग कट नहीं जाती थी. फिर वह हारी हुई कटी पंतग अपने धागे से मुक्ति पाकर नीले आसमान में पता नहीं कहां चली जाती थी. बाज़ियां लगती थीं, और पैसे हाथ बदलते थे.


उस समय पतंगबाजी शाही शौक था. बूढ़े ने याद किया कि कैसे नवाब साहब खुद नदी किनारे अपने दरबार के साथ आते थे और इस राजसी शौक में समय बिताते थे. तब लोगों के पास समय था, जो कि वह एक नाचते हुए, दिल को खुश करने वाले, काग़ज के टुकड़े के साथ मौज मस्ती में बिता सकते थे, चाहे घंटा भर ही क्यों न हो. आजकल लोग दौड़ते ही रहते हैं, उम्मीदों की गर्मी लिए. किसी के पास समय नहीं है; नाजुक चीजें जैसे पतंग उड़ाना या आंख बंद कर सुनहरे सपने देखना, पैरों तले रौंद दी जाती हैं.


जब वह जवान था, तो महमूद पतंग बनाने वाले के नाम से सारे शहर में जाना जाता था. और उसकी कुछ विशेष सजावट वाली पतंगें उन दिनों में तीन या चार रुपए तक भी बिकती थीं.


एक बार नवाब साहब के कहने पर उसने एक बहुत ही ख़ास क़िस्म की पतंग बनाई थी, जैसी किसी ने कभी उस ज़िले में नहीं देखी थी. उसमें एक क़तार में लगे छोटे-छोटे काग़ज के गोलाकार टुकड़े एक हल्के बांस के फ्रेम से जड़े थे. हर गोले के दोनों तरफ एक-एक घास का गुच्छा लगा दिया गया था जिससे संतुलन बना रहे. सबसे ऊपर वाला काग़ज का गोला एक तरफ को फूला हुआ था उसके ऊपर एक अजीब सा चेहरा बना दिया गया था, जिसमें आंखों की जगह दो छोटे गोल शीशे जड़े थे. गोले सिर से पूंछ तक आकार में घटते जाते थे और कुछ लहराते से थे, और पतंग ऐसी लगती थी मानो कोई सांप सड़क पर रेंग रहा हो. इस बोझिल सी बनावट को जमीन से ऊपर उठाना बड़ी कला का काम था. सिर्फ महमूद ही उसे हवामें उड़ा सकता था.


सभी ने महमूद की बनाई ड्रैगन-पतंग के बारे में सुन लिया था और कहने लगे कि वह पतंग तिलिस्मी है. जब नवाब साहब के सामने उड़ाने के लिए वह पतंग पेश की गई, तब अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई थी.

प्रेमचंद की कहानी: स्‍वामिनी (भाग-2)


पहली कोशिश फ़िज़ूल गई, पतंग जमीन से उठी नहीं. बस काग़ज के गोलों ने एक रुआंसी व शिकायत भरी सरसराहट की; हिलने से पतंग की आँखें, जो कि शीशों की बनी थीं, सूरज की रोशनी में चमक उठीं और पतंग एक जानदार चीज सी लगने लगी. फिर सही दिशा से हवा आई और ड्रैगन-काइट आसमान में उठ गई, इधर-उधर छटपटाते हुए वह ऊपर उठने लगी, ऊंची, और ऊंची. सूरज की रोशनी में, शीशे लगी आंखें शैतानी से चमकने लगीं. जब यह बहुत ही ऊपर उठ गई, तो हाथ में पकड़ी रस्सी पर जोरों का झटका लगने लगा. महमूद के लड़कों ने चरख़ी को संभाला; पतंग जोर मारती रही, वह टूट कर निकलना चाहती थी, आज़ादी चाहती थी, अपने मन की मौज के अनुसार जीना चाहती थी. और आखिरकार ऐसा ही हुआ.


रस्सी टूट गई, पतंग सूरज की तरफ लपकी, और आसमान की ओर शान से जाने लगी, और फिर आंखों से ओझल हो गई. वह पतंग फिर कभी मिली नहीं और महमूद ने सोचा कि उसने पतंग में जीवन भर दिया था, वह बिल्कुल जीती जागती चीज हो गई थी. उसने दुबारा वैसी पतंग नहीं बनाई. उसने नवाब साहब को एक गाने वाली पतंग बनाकर दी. जब वह हवा में उठती थी, तो वायलिन बजने की सी आवाज आती थी.


वे आराम-भरे, खुले दिन थे. अब नवाब तो कुछ साल पहले मर चुके थे और उनके वारिस काफी ग़रीब थे, करीब-करीब महमूद जैसे. किसी जमाने में पतंग बनाने वालों को आश्रम देने वाले लोग होते थे, जैसे कवियों को लोग सहारा देते है, पर अब महमूद को गली में कोई जानता ही नहीं था. गली में अब इतने लोग रहने लगे थे कि उन्हें पड़ोसियों के मिजाज पुरसी का समय न था.


जब महमूद छोटा था और बीमार पड़ता था तो सारा पड़ोस आकर उसकी तबीयत पूछता था. अब जब उसके दिन पूरे होने को आए थे, कोई कभी मिलने नहीं आता. सच तो यह भी था कि उसके पुराने दोस्त सब मर चुके थे और उसके लड़के उम्रदार हो चुके थे; एक तो पास के गैराज में काम कर रहा था, दूसरा पाकिस्तान में था. बंटवारे के समय वह वहीं था और फिर वापस यहां रिश्तेदारी में नहीं आ सका था.


जो बच्चे दस साल पहले उससे पतंग ले जाते थे वे खुद अब जवान थे और मुश्किल से अपनी रोज़ी-रोटी कमाते थे. उनके पास एक बूढ़े आदमी और उसकी याददाश्तों के लिए समय नहीं था. वे एक तेज़ी से बदलती और होड़ भरी दुनिया में बड़े हुए थे. एक बूढ़ा आदमी और एक बूढ़ा बरगद, दोनों ही, उनके लिए सिर्फ उपेक्षा के पात्र थे.


उन्होंने तय कर लिया था ये दोनों ही हमेशा के लिए इस तरह से जुड़े जरूर थे; पर हल्ला-गुल्ला मचाती, माथे से पसीना बहाती आम आदमी की दुनिया जो उन के आसपास थी, उसका इनसे कोई लेना देना नहीं था. अब लोग बरगद के पेड़ तले जमा होकर अपनी समस्याओं और अपनी योजनाओं के बारे में बाते नहीं करते थे. सिर्फ गर्मियों में कभी कभी कड़ी धूप से बचने के लिए वहां खड़े हो जाते थे.


पर वह छोटा लड़का था न, महमूद का पोता–महमूद का बेटा पास ही काम करता था–महमूद उस छोटे लड़के को जाड़ों की धूप में खेलते हुए देखता था और जैसे एक तंदुरुस्त पौधा रोज कुछ नहीं पत्तियां निकाल कर बढ़ता है, वैसे ही अली भी महमूद की आंखों के सामने बढ़ रहा था. पेड़ों और आदमियों में बहुत कुछ एक जैसा है. हम धीरे-धीरे बढ़ते रहते हैं, अगर हमें कोई चोट न पहुंचाए, भूखा न रखे या काट न डाले. जवानी में हम अपनी शान से, देखने वालों की आंखों में चमक ले आते हैं, बुढ़ापे में कुछ झुकने लगते हैं, हम टूटती शाखाएं, थके हाथ-पैर धूप में फैलाते हैं और फिर एक लंबी सांस खींचकर अपने आखरी पत्ते बिखेर देते हैं.


महमूद उस पुराने बरगद के पेड़ सा था, उसके हाथ भी झुर्रियों भरे कुछ टेढ़े मेढ़े हो गए थे, बरगद की जड़ों की तरह.

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