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प्रेमचंद की कहानी: नैराश्य लीला (पार्ट 4)

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(कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद कीकहानियों की श्रृंखला में महिला चरित्रों की प्रभावशाली चरित्र-चित्रण की विशेषता दिखाने वाली कहानियों की पिछली कड़ी में आपने ‘बड़े घर की बेटी’ और ‘स्वामिनी’ पढा. इसी श्रृंखला हम आज लेकर आए हैं उनकी एक और कहानी ‘नैराश्य लीला’. उम्मीद है यह कड़ी पाठकोंको पसंद आएगी. कहानी परआपकी बहुमूल्यप्रतिक्रया काहमें इंतजार रहेगा.)

गतांक से आगे……

4

Munshi Premchand Storiesकैलासकुमारी की सेवा-प्रवृत्ति दिनोंदिन तीव्र होने लगी. दिन-भर लड़कियों को लिये रहती; कभी पढ़ाती, कभी उनके साथ खेलती, कभी सीना-पिरोना सिखाती. पाठशाला ने परिवार का रूप धारण कर लिया. कोई लड़की बीमार हो जाती तो तुरंत उसके घर जाती, उसकी सेवा-सुश्रूषा करती, गाकर या कहानियां सुनाकर उसका दिल बहलाती.


पाठशाला को खुले हुए साल-भर हुआ था. एक लड़की को, जिससे वह बहुत प्रेम करती थी, चेचक निकल आई. कैलासी उसे देखने गयी. मां-बाप ने बहुत मना किया, पर उसने न माना. कहा- तुरंत लौट आऊंगी. लड़की की हालत खराब थी. कहां तो रोते-रोते तालू सूखता था, कहां कैलासी को देखते ही मानो सारे कष्ट भाग गए. कैलासी एक घंटे तक वहां रही. लड़की बराबर उससे बातें करती रही. लेकिन जब वह चलने को उठी तो लड़की ने रोना शुरू किया. कैलासी मजबूर होकर बैठ गई. थोड़ी देर के बाद जब वह फिर उठी तो फिर लड़की की यही दशा हो गई. लड़की उसे किसी तरह छोड़ती ही न थी. सारा दिन गुजर गया. रात को भी लड़की ने न जाने दिया. हृदयनाथ उसे बुलाने को बार-बार आदमी भेजते, पर वह लड़की को छोड़कर न जा सकती. उसे ऐसी शंका होती थी कि मैं यहां से चली और लड़की हाथ से गई. उसकी मां विमाता थी. इससे कैलासी को उसके ममत्व पर विश्वास न होता था. इस प्रकार वह तीन दिनों तक वहां रही. आठों पहर बालिका के सिरहाने बैठी पंखा झलती रहती. बहुत थक जाती तो दीवार से पीठ टेक लेती! चौथे दिन लड़की की हालत कुछ संभलती हुई मालूम हुई तो वह अपने घर आयी. मगर अभी स्नान भी न करने पाई थी कि आदमी पहुंचा- जल्द चलिए, लड़की रो-रोकर जान दे रही है.


हृदयनाथ ने कहा- कह दो, अस्पताल से कोई नर्स बुला लें!


कैलासकुमारी- दादा, आप व्यर्थ में झुंझलाते हैं. उस बेचारी की जान बच जाए, मैं तीन दिन नहीं, तीन महीने उसकी सेवा करने को तैयार हूं. आखिर यह देह किस दिन काम आएगी.


हृदयनाथ- तो कन्याएं कैसे पढ़ेंगी?


कैलासी- दो-एक दिन में वह अच्छी हो जाएगी, दाने मुरझाने लगे हैं, तब तक आप जरा इन लड़कियों की देखभाल करते रहिएगा.


हृदयनाथ- यह बीमारी छूत से फैलती है.


कैलासी- (हंसकर) मर जाऊंगी तो आपके सिर से एक विपत्ति टल जाएगी. यह कहकर उसने उधर की राह ली. भोजन की थाली परसी रह गई.


तब हृदयनाथ ने जागेश्वरी से कहा- जान पड़ता है, बहुत जल्द यह पाठशाला भी बंद करनी पड़ेगी.


जागेश्वरी- बिना मांझी के नाव पार लगाना बहुत कठिन है. जिधर हवा पाती है, उधर ही बह जाती है.


हृदयनाथ- जो रास्ता निकालता हूं वही कुछ दिनों के बाद किसी दलदल में फंसा देता है. अब फिर बदनामी के सामान होते नजर आ रहे हैं. लोग कहेंगे, लड़की दूसरों के घर जाती है और कई-कई दिन पड़ी रहती है. क्या करूं, कह दूं, लड़कियों को न पढ़ाया करो?


जागेश्वरी- इसके सिवा और हो क्या सकता है.


कैलासकुमारी दो दिन बाद लौटी तो हृदयनाथ ने पाठशाला बंद कर देने की समस्या उसके सामने रखी. कैलासी ने तीव्र स्वर से कहा- अगर आपको बदनामी का इतना भय है तो मुझे विष दे दीजिए. इसके सिवा बदनामी से बचने का और कोई उपाय नहीं है.


हृदयनाथ- बेटी, संसार में रहकर तो संसार की-सी करनी ही पड़ेगी.


कैलासी- तो कुछ मालूम भी तो हो कि संसार मुझसे क्या चाहता है. मुझमें जीव है, चेतना है, जड़ क्योंकर बन जाऊं! मुझसे यह नहीं हो सकता कि अपने को अभागिनी, दुखिया समझूं और एक टुकड़ा रोटी खाकर पड़ी रहूं. ऐसा क्यों करूं? संसार मुझे जो चाहे समझे, मैं अपने को अभागिनी नहीं समझती. मैं अपने आत्म-सम्मान की रक्षा आप कर सकती हूं. मैं इसे अपना घोर अपमान समझती हूं कि पग-पग पर मुझ पर शंका की जाए, नित्य कोई चरवाहों की भांति मेरे पीछे लाठी लिए घूमता रहे कि किसी खेत में न जा पड़ूं. यह दशा मेरे लिए असह्य है.


यह कहकर कैलासकुमारी वहां से चली गई कि कहीं मुंह से अनर्गल शब्द न निकल पड़े. इधर कुछ दिनों से उसे अपनी बेकसी का यथार्थ ज्ञान होने लगा था. स्त्री पुरुष की कितनी अधीन है, मानो स्त्री को विधाता ने इसीलिए बनाया है कि पुरुषों के अधीन रहे. यह सोचकर वह समाज के अत्याचार पर दांत पीसने लगती थी.


पाठशाला तो दूसरे ही दिन से बंद हो गई, किंतु उसी दिन कैलासकुमारी को पुरुषों से जलन होने लगी. जिस सुख-भोग से प्रारब्ध हमें वंचित कर देता है उससे हमें द्वेष हो जाता है. गरीब आदमी इसीलिए तो अमीरों से जलता है और धन की निंदा करता है. कैलासी बार-बार झुंझलाती कि स्त्री क्यों पुरुष पर इतनी अवलम्बित है? पुरुष क्यों स्त्री के भाग्य का विधायक है? स्त्री क्यों नित्य पुरुषों का आश्रय चाहे, उनका मुंह ताके? इसलिए न कि स्त्रियों में अभिमान नहीं है, आत्म-सम्मान नहीं है. नारी-हृदय के कोमल भाव, उसे कुत्तों का दुम हिलाना मालूम होने लगे. प्रेम कैसा? यह सब ढोंग है, स्त्री पुरुष के अधीन है, उसकी खुशामद न करे, सेवा न करे, तो उसका निर्वाह कैसे हो.


एक दिन उसने अपने बाल गूंथे और जूड़े में गुलाब का फूल लगा लिया. मां ने देखा तो ओंठ से जीभ दबा ली. महरियों ने छाती पर हाथ रखे.


इसी तरह उसने एक दिन रंगीन रेशमी साड़ी पहन ली. पड़ोसिनों में इस पर खूब आलोचनाएं हुईं.


उसने एकादशी का व्रत रखना छोड़ दिया जो पिछले आठ बरसों से रखती आई थी. कंघी और आइने को वह अब त्याज्य न समझती थी.


सहालग के दिन आए. नित्य-प्रति उसके द्वार पर से बरातें निकलतीं. मुहल्ले की स्त्रियां अपनी-अपनी अटारियों पर खड़ी होकर देखतीं. वर के रंग-रूप, आकार-प्रकार पर टीकाएं होतीं, जागेश्वरी से भी बिना एक आंख देखे न रहा जाता. लेकिन कैलासकुमारी कभी भूलकर भी इन जलूसों को न देखती. कोई बरात या विवाह की बात चलाता तो वह मुंह फेर लेती. उसकी दृष्टि में वह विवाह नहीं, भोली-भाली कन्याओं का शिकार था. बातों को वह शिकारियों के कुत्ते समझती. यह विवाह नहीं है, स्त्री का बलिदान है.


5

तीज का व्रत आया. घरों की सफाई होने लगी. रमणियां इस व्रत को रखने की तैयारियां करने लगीं. जागेश्वरी ने भी व्रत का सामान किया. नयी-नयी साड़ियां मंगवाईं. कैलासकुमारी के ससुराल से इस अवसर पर कपड़े, मिठाइयां और खिलौने आया करते थे. अबकी भी आए. यह विवाहिता स्त्रियों का व्रत है. इसका फल है पति का कल्याण. विधवाएं भी इस व्रत को यथोचित रीति से पालन करती हैं. पति से उनका संबंध शारीरिक नहीं, वरन् आध्यात्मिक होता है. उसका इस जीवन के साथ अंत नहीं होता, अनंत काल तक जीवित रहता है. कैलासकुमारी अब तक यह व्रत रहती आई थी. अबकी उसने निश्चय किया, मैं व्रत न रखूंगी. मां ने तो माथा ठोक लिया. बोली- बेटी, यह व्रत रखना धर्म है.


कैलासकुमारी- पुरुष भी स्त्रियों के लिए कोई व्रत रखते हैं?


जागेश्वरी- मर्दों में इसकी प्रथा नहीं है.


कैलासकुमारी- इसीलिए न कि पुरुषों को स्त्रियों की जान उतनी प्यारी नहीं होती जितनी स्त्रियों को पुरुषों की जान.


जागेश्वरी- स्त्रियां पुरुषों की बराबरी कैसे कर सकती हैं? उनका तो धर्म है अपने पुरुष की सेवा करना.


कैलासकुमारी- मैं इसे अपना धर्म नहीं समझती. मेरे लिए अपनी आत्मा की रक्षा के सिवा और कोई धर्म नहीं.


जागेश्वरी- बेटी, गजब हो जाएगा, दुनिया क्या कहेगी?


कैलासकुमारी- फिर वही दुनिया? अपनी आत्मा के सिवा मुझे किसी का भय नहीं.


हृदयनाथ ने जागेश्वरी से यह बातें सुनीं तो चिंता-सागर में डूब गए. इन बातों का क्या आशय? क्या आत्म-सम्मान का भाव जागृत हुआ है या नैराश्य की क्रूर क्रीड़ा है? धनहीन प्राणी को जब कष्ट-निवारण का कोई उपाय नहीं रह जाता तो वह लज्जा को त्याग देता है. निस्संदेह नैराश्य ने यह भीषण रूप धारण किया है. सामान्य दशाओं में नैराश्य अपने यथार्थ रूप में आता है, पर गर्वशील प्राणियों में वह परिमार्जित रूप ग्रहण कर लेता है. यहां पर हृदयगत कोमल भावों का अपहरण कर लेता है- चरित्र में अस्वाभाविक विकास उत्पन्न कर देता है- मनुष्य लोक-लाज और उपहास की ओर से उदासीन हो जाता है, नैतिक बंधन टूट जाते हैं. यह नैराश्य की अंतिम अवस्था है.


हृदयनाथ इन्हीं विचारों में मग्न थे कि जागेश्वरी ने कहा- अब क्या करना होगा?


हृदयनाथ- क्या बताऊं.


जागेश्वरी- कोई उपाय है?


हृदयनाथ- बस, एक ही उपाय है, पर उसे जबान पर नहीं ला सकता.


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