Menu
blogid : 2262 postid : 656406

प्रेमचंद की कहानी: नैराश्य लीला (पार्ट 2)

कहानियां
कहानियां
  • 120 Posts
  • 28 Comments

(कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद कीकहानियों की श्रृंखला में महिला चरित्रों की प्रभावशाली चरित्र-चित्रण की विशेषता दिखाने वाली कहानियों की पिछली कड़ी में आपने ‘बड़े घर की बेटी’ और ‘स्वामिनी’ पढा. इसी श्रृंखला हम आज लेकर आए हैं उनकी एक और कहानी ‘नैराश्य लीला’. उम्मीद है यह दूसरी कड़ी पाठकोंको पसंद आएगी. कहानी परआपकी बहुमूल्यप्रतिक्रया काहमें इंतजार रहेगा.)

गतांक से आगे……

2

Premchand Storiesइस भांति दो वर्ष बीत गये. कैलासी सैर-तमाशे की इतनी आदी हो गई कि एक दिन भी थिएटर न जाती तो बेकल-सी होने लगती. मनोरंजन नवीनता का दास है और समानता का शत्रु. थिएटरों के बाद सिनेमा की सनक सवार हुई. सिनेमा के बाद मिस्मेरिज्म और हिप्नोटिज्म के तमाशों की! ग्रामोफोन के नये रिकार्ड आने लगे. संगीत का चस्का पड़ गया. बिरादरी में कहीं उत्सव होता तो मां-बेटी अवश्य जातीं. कैलासी नित्य इसी नशे में डूबी रहती, चलती तो कुछ गुनगुनाती हुई, किसी से बातें करती तो वही थिएटर की और सिनेमा की. भौतिक संसार से अब कोई वास्ता न था, अब उसका निवास कल्पना-संसार में था. दूसरे लोक की निवासिनी होकर उसे प्राणियों से कोई सहानुभूति न रही, किसी के दु:ख पर जरा दया न आती. स्वभाव में उच्छृंखलता का विकास हुआ, अपनी सुरुचि पर गर्व करने लगी. सहेलियों से डींगे मारती, यहां के लोग मूर्ख हैं, यह सिनेमा की कद्र क्या करेंगे. इसकी कद्र तो पश्चिम के लोग करते हैं. वहां मनोरंजन की सामग्रियां उतनी ही आवश्यक हैं जितनी हवा. जभी तो वे उतने प्रसन्न-चित्त रहते हैं, मानो किसी बात की चिंता ही नहीं. यहां किसी को इसका रस ही नहीं. जिन्हें भगवान ने सामर्थ्य भी दिया है वह भी सरेशाम से मुंह ढांककर पड़ रहते हैं. सहेलियां कैलासी की यह गर्वपूर्ण बातें सुनतीं और उसकी और भी प्रशंसा करतीं. वह उनका अपमान करने के आवेग में आप ही हास्यास्पद बन जाती थी.


पड़ोसियों में इन सैर-सपाटों की चर्चा होने लगी. लोक-सम्मति किसी की रिआयत नहीं करती. किसी ने सिर पर टोपी टेढ़ी रखी और पड़ोसियों की आंखों में चुभा, कोई जरा अकड़कर चला और पड़ोसियों ने आवाजें कसीं. विधवा के लिए पूजा-पाठ है, तीर्थ-व्रत है, मोटा खाना है, मोटा पहनना है; उसे विनोद और विलास, राग और रंग की क्या जरूरत? विधाता ने उसके सुख के द्वार बंद कर दिए हैं. लड़की प्यारी सही, लेकिन शर्म और हया भी तो कोई चीज है. जब मां-बाप ही उसे सिर चढ़ाए हुए हैं तो उसका क्या दोष? मगर एक दिन आंखें खुलेंगी अवश्य. महिलाएं कहतीं, बाप तो मर्द है, लेकिन मां कैसी है उसको जरा भी विचार नहीं कि दुनिया क्या कहेगी. कुछ उन्हीं की एक दुलारी बेटी थोड़े ही है, इस भांति मन बढ़ाना अच्छा नहीं.


कुछ दिनों तक तो यह खिचड़ी आपस में पकती रही. अंत को एक दिन कई महिलाओं ने जागेश्वरी के घर पदार्पण किया. जागेश्वरी ने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया. कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद एक महिला बोली- महिलाएं रहस्य की बातें करने में बहुत अभ्यस्त होती हैं- बहन, तुम्हीं मजे में हो कि हंसी-खुशी में दिन काट देती हो. हमें तो दिन पहाड़ हो जाता है. न कोई काम न धंधा, कोई कहां तक बातें करे?


दूसरी देवी ने आंखें मटकाते हुए कहा- अरे, तो यह तो बदे की बात है. सभी के दिन हंसी-खुशी से कटें तो रोये कौन. यहां तो सुबह से शाम तक चक्की-चूल्हे से छुट्टी नहीं मिलती; किसी बच्चे को दस्त आ रहे हैं; तो किसी को ज्वर चढ़ा हुआ है; कोई मिठाइयों की रट रहा है; तो कोई पैसों के लिए महनामथ मचाये हुए है. दिन भर हाय-हाय करते बीत जाता है. सारे दिन कठपुतलियों की भांति नाचती रहती हूं.


तीसरी रमणी ने इस कथन का रहस्यमय भाव से विरोध किया- बदे की बात नहीं, वैसा दिल चाहिए. तुम्हें तो कोई राज सिंहासन पर बिठा दे तब भी तस्कीन न होगी. तब और भी हाय-हाय करोगी.


इस पर एक वृद्धा ने कहा- नौज ऐसा दिल! यह भी कोई दिल है कि घर में चाहे आग लग जाय, दुनिया में कितना ही उपहास हो रहा हो, लेकिन आदमी अपने राग-रंग में मस्त रहे. वह दिल है कि पत्थर! हम गृहिणी कहलाती हैं, हमारा काम है अपनी गृहस्थी में रत रहना. आमोद-प्रमोद में दिन काटना हमारा काम नहीं.


और महिलाओं ने इस निर्दय व्यंग्य पर लज्जित होकर सिर झुका लिया. वे जागेश्वरी की चुटकियां लेना चाहती थीं, उसके साथ बिल्ली और चूहे की निर्दयी क्रीड़ा करना चाहती थीं. आहत को तड़पाना उनका उद्देश्य था. इस खुली हुई चोट ने उनके पर-पीड़न प्रेम के लिए कोई गुंजाइश न छोड़ी; किंतु जागेश्वरी को ताड़ना मिल गई. स्त्रियों के विदा होने के बाद उसने जाकर पति से यह सारी कथा सुनाई. हृदयनाथ उन पुरुषों में न थे जो प्रत्येक अवसर पर अपनी आत्मिक स्वाधीनता का स्वांग भरते हैं, हठधर्मी को आत्म-स्वातंत्र्य के नाम से छिपाते हैं. वह संचित भाव से बोले- तो अब क्या होगा?


जागेश्वरी- तुम्हीं कोई उपाय सोचो.


हृदयनाथ- पड़ोसियों ने जो आक्षेप किया है वह सर्वथा उचित है. कैलासकुमारी के स्वभाव में मुझे एक विचित्र अंतर दिखाई दे रहा है. मुझे स्वयं ज्ञात हो रहा है कि उसके मन बहलाव के लिए हम लोगों ने जो उपाय निकाला है वह मुनासिब नहीं है. उनका यह कथन सत्य है कि विधवाओं के लिए यह आमोद-प्रमोद वर्जित है. अब हमें यह परिपाटी छोड़नी पड़ेगी.


जागेश्वरी- लेकिन कैलासी तो इन खेल-तमाशों के बिना एक दिन भी नहीं रह सकती.


हृदयनाथ- उसकी मनोवृत्तियों को बदलना पड़ेगा.


(शेष अगले अंक में……)


Munshi Premchand Stories In Hindi

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh