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प्रेमचंद की कहानी: नैराश्य लीला

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(कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद कीकहानियों की श्रृंखला में महिला चरित्रों की प्रभावशाली चरित्र-चित्रण की विशेषता दिखाने वाली कहानियों की पिछली कड़ी में आपने ‘बड़े घर की बेटी’ और ‘स्वामिनी’ पढा. इसी श्रृंखला हम आज लेकर आए हैं उनकी एक और कहानी ‘नैराश्य लीला’. उम्मीद है यह पहली कड़ी पाठकोंको पसंद आएगी. कहानी परआपकी बहुमूल्यप्रतिक्रया काहमें इंतजार रहेगा.)


Premchandपंडित हृदयनाथ अयोध्या के एक सम्मानित पुरुष थे. धनवान तो नहीं लेकिन खाने-पीने से खुश थे. कई मकान थे, उन्हीं के किराये पर गुजर होता था. इधर किराये बढ़ गये थे, उन्होंने अपनी सवारी भी रख ली थी. बहुत विचारशील आदमी थे, अच्छी शिक्षा पाई थी. संसार का काफी तजुर्बा था, पर क्रियात्मक शक्ति से वंचित थे, सबकुछ न जानते थे. समाज उनकी आंखों में एक भयंकर भूत था जिससे सदैव डरते रहना चाहिए. उसे जरा भी रुष्ट किया तो फिर जान की खैर नहीं. उनकी स्त्री जागेश्वरी उनका प्रतिबिंब थी, पति के विचार उसके विचार और पति की इच्छा उसकी इच्छा थी. दोनों प्राणियों में कभी मतभेद न होता था. जागेश्वरी शिव की उपासक थी, हृदयनाथ वैष्णव थे, पर दान और व्रत में दोनों को समान श्रद्धा थी, दोनों धर्मनिष्ठ थे, उससे कहीं अधिक, जितना सामान्यत: शिक्षित लोग हुआ करते हैं. इसका कदाचित यह कारण था कि एक कन्या के सिवा उनके और कोई संतान न थी. उसका विवाह तेरहवें वर्ष में हो गया था और माता-पिता की अब यही लालसा थी कि भगवान इसे पुत्रवती करें तो हम लोग नवासे के नाम अपना सब-कुछ लिख-लिखाकर निश्चिंत हो जाएं.


किंतु विधाता को कुछ और ही मंजूर था. कैलासकुमारी का अभी गौना भी न हुआ था, वह अभी तक यह भी न जानने पाई थी कि विवाह का आशय क्या है, कि उसका सुहाग उठ गया. वैधव्य ने उसके जीवन की अभिलाषाओं का दीपक बुझा दिया.


माता-पिता विलाप कर रहे थे, घर में कुहराम मचा हुआ था, पर कैलासकुमारी भौंचक्की हो-होकर सबके मुंह की ओर ताकती थी. उसकी समझ ही में न आता था कि यह लोग रोते क्यों हैं? मां-बाप की इकलौती बेटी थी. मां-बाप के अतिरिक्त वह किसी तीसरे व्यक्ति को अपने लिए आवश्यक न समझती थी. उसकी सुख-कल्पनाओं में अभी तक पति का प्रवेश न हुआ था. वह समझती थी, स्त्रियां पति के मरने पर इसलिए रोती हैं कि वह उनका और उनके बच्चों का पालन करता है. मेरे घर में किस बात की कमी है? मुझे इसकी क्या चिंता है कि खाएंगे क्या, पहनेंगे क्या? मुझे जिस चीज की जरूरत होगी बाबूजी तुरंत ला देंगे, अम्मा से जो चीज मांगूंगी वह दे देंगी. फिर रोऊं क्यों? यह अपनी मां को रोते देखती तो रोती, पति के शोक से नहीं, मां के प्रेम से. कभी सोचती, शायद यह लोग इसलिए रोते हैं कि कहीं मैं कोई ऐसी चीज न मांग बैठूं जिसे वह दे न सकें. तो मैं ऐसी चीज मांगूंगी ही क्यों? मैं अब भी तो उनसे कुछ नहीं मागतीं, वह आप ही मेरे लिए एक न एक चीज नित्य लाते रहते हैं. क्या मैं अब कुछ और हो जाऊंगी? इधर माता का यह हाल था कि बेटी की सूरत देखते ही आंखों से आंसू की झड़ी लग जाती. बाप की दशा और भी करुणाजनक थी. घर में आना-जाना छोड़ दिया. सिर पर हाथ धरे कमरे में अकेले उदास बैठे रहते. उसे विशेष दु:ख इस बात का था कि सहेलियां भी अब उसके साथ खेलने न आतीं. उसने उनके घर जाने की माता से आज्ञा मांगी तो वह फूट-फूट कर रोने लगीं. माता-पिता की यह दशा देखी तो उसने उनके सामने जाना छोड़ दिया, बैठी किस्से-कहानियां पढ़ा करती. उसकी एकांतप्रियता का मां-बाप ने कुछ और ही अर्थ समझा. लड़की शोक के मारे घुली जाती है, इस वज्रपात ने उसके हृदय को टुकड़े-टुकड़े कर डाला है.


एक दिन हृदयनाथ ने जागेश्वरी से कहा- जी चाहता है,घर छोड़कर कहीं भाग जाऊं. इसका कष्ट अब नहीं देखा जाता.


जागेश्वरी- मेरी तो भगवान से यही प्रार्थना है कि मुझे संसार से उठा लें. कहां तक छाती पर पत्थर की सिल रखूं.

हृदयनाथ- किसी भांति इसका मन बहलाना चाहिए, जिसमें शोकमय विचार आने ही न पायें. हम लोगों को दु:खी और रोते देखकर उसका दु:ख और भी दारुण हो जाता है.

जागेश्वरी- मेरी तो बुद्धि कुछ काम नहीं करती.

हृदयनाथ- हम लोग यों ही मातम करते रहे तो लड़की की जान पर बन आएगी. अब कभी-कभी उसे लेकर सैर करने चली जाया करो. कभी-कभी थिएटर दिखा दिया, कभी घर में गाना-बजाना करा दिया. इन बातों से उसका दिल बहलता रहेगा.

जागेश्वरी- मैं तो उसे देखते ही रो पड़ती हूं. लेकिन अब जब्त करूंगी. तुम्हारा विचार बहुत अच्छा है. बिना दिल-बहलाव के उसका शोक न दूर होगा.

हृदयनाथ- मैं भी अब उससे दिल बहलानेवाली बातें किया करूंगा. कल एक सैरबीं लाऊंगा, अच्छे-अच्छे दृश्य जमा करूंगा. ग्रामोफोन तो आज ही मंगवाए देता हूं. बस उसे हर वक्त किसी न किसी काम में लगाए रहना चाहिए. एकांतवास शोक-ज्वाला के लिए समीर के समान है.


उस दिन से जागेश्वरी ने कैलासकुमारी के लिए विनोद और प्रमोद के सामान जमा करने शुरू किए. कैलासी मां के पास आती तो उसकी आंखों में आंसू की बूंदें न देखती, होंठों पर हंसी की आभा दिखाई देती. वह मुस्करा कर कहती- बेटी, आज थिएटर में बहुत अच्छा तमाशा होनेवाला है, चलो देख आएं. कभी गंगा-स्नान की ठहरती, वहां मां-बेटी किश्ती पर बैठकर नदी में जल-विहार करतीं, कभी दोनों संध्या-समय पार्क की ओर चली जातीं. धीरे-धीरे सहेलियां भी आने लगीं. कभी सब-की-सब बैठकर ताश खेलतीं, कभी गाती-बजातीं. पंडित हृदयनाथ ने भी विनोद की सामग्रियां जुटाईं. कैलासी को देखते ही मग्न होकर बोलते- बेटी आओ, तुम्हें आज काश्मीर के दृश्य दिखाऊं; कभी कहते, आओ आज स्विट्जरलैंड की अनुपम झांकी और झरनों की छटा देखें; कभी ग्रामोफोन बजाकर उसे सुनाते. कैलासी इन सैर-सपाटों का खूब आनंद उठाती. इतने सुख से उसके दिन कभी न गुजरे थे.

(शेष अगले अंक में……)

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