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दिल के रिश्ते टूट जाते हैं तो फिर खून के रिश्तों का क्या (पार्ट- 2) Hindi Story

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इस कहानी का पहला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें

वर्ष भर बाद ही शशांक का जन्म हुआ। परिवार में खुशियां छा गई। बच्चों को भी खिलौना जैसा एक भाई मिल गया। इस बीच समीर के व्यवहार में तब्दीली आ गई। युवा होती सुलोचना के निखरते सौंदर्य को देख उनका मन भावी आशंका से कांप उठा, कहीं किसी का दिल इस पर न आ जाए।


संशय के नाग ने फिर उन्हें चैन नहीं लेने दिया। सुलोचना के कपडों, साज-श्रृंगार पर उनकी पूरी नजर रहने लगी। घर में बाहर से आने वाले लोगों पर नजर रखने लगे। सुलोचना की चारित्रिक विशेषताओं का उन्हें पता नहीं था, लेकिन अपने मन की दुर्बलताओं के वे शिकार हो रहे थे। सुलोचना बुद्धिमान थीं। वह समीर के मन को पढ रही थीं। सरल व उदार प्रकृति के समीर के मन में सिर्फ एक ही आंधी चल रही थी। इस सुंदर सी गुडिया को कोई युवा छीन न ले। दिव्य सौंदर्य ही उनके लिए अभिशाप बन गया। समीर अपनी बढती उम्र की धार को रोकने में असमर्थ थे और सौंदर्य की साम्राज्ञी युवा सुलोचना इसका निदान ढूंढ नहीं पा रही थीं। समीर की अवस्था विक्षिप्तों जैसी थी। सुलोचना को कई बार उनकी अवस्था पर तरस आता। उन्होंने सूझबूझ से काम लेते हुए प्रसाधन की वस्तुओं का परित्याग कर दिया।


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सुबह की पहली किरण के साथ ही सुलोचना चक्की पर अनाज दलने लगतीं। श्रम भुलाने के लिए कुछ गुनगुनाती रहतीं, पर हाथ इतनी कठोरता से चक्की चलाते, मानो अपने सारे दुख-दर्द भी पीस डालेंगे। सुलोचना ने बच्चों के पालन-पोषण में कोई भेद-भाव नहीं किया। संदेह की सूई अपनी ओर इंगित होने पर भी अपनी कर्तव्यनिष्ठा में कोई गलती नहीं होने दी। विधाता ने शायद सुलोचना के भाग्य की रचना आंसुओं में डुबा कर की थी। बढती उम्र ने उन्हें पति के शक के दायरे से थोडा दूर जरूर किया, लेकिन उन पर वज्राघात तो तब हुआ, जब बेटा शशांक एक दिन की बीमारी के बाद संसार से विदा हो गया। इस दुख ने तो उन्हें तोड ही डाला। मायके वालों से संबंध तोड लेने के कारण उनके आंसू पोंछने भी कोई नहींआया।


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तीनों बच्चों ने माता-पिता को सहारा दिया। शशांक की मृत्यु ने सुलोचना को तोडा जरूर, लेकिन दु:खों से लडना उन्होंने सीख लिया था। समीर दुख के इस झोंके से लडखडा कर बिस्तर पर पड गए। सुलोचना ने हिम्मत नहीं हारी। सुलोचना को अपनी सुध-बुध नहीं रही। वर्ष भर पहले सास की मृत्यु हो चुकी थी और देवर निर्मल का तबादला रांची हो गया था। निर्मल प्राय: समीर को देखने बोकारो आते।


तीनों लडकों की नियुक्ति अलग-अलग शहरों में हो चुकी थी। माता-पिता को साथ रहने का अनुरोध सभी ने किया था, लेकिन पति-पत्नी अपना घर नहीं छोडना चाहते थे। छुट्टियों में सभी आ जाते।


पति-पत्नी के बीच बेहद लगाव हो गया था कि काल ने चुपके से आकर पति को अपने आगोश में ले लिया। इस बार सुलोचना का धैर्य टूट गया। उनकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। ऐसे समय में उनके देवर और ऋतिका के पापा निर्मल ने उन्हें अपने यहां सहारा दिया।


झारखंड के एक छोटे से गांव से अपनी जीवन यात्रा शुरू करने वाली ताई ने जीवन की सांध्य वेला में रांची में अपने देवर निर्मल के घर पडाव डाला। संकट की उस घडी में वह पति का घर छोडना नहीं चाहती थीं, लेकिन निर्मल ने उन्हें अपने घर रहने का अनुरोध किया। निर्मल की पुत्री ऋतिका ताई से बेहद प्यार करती थी। सभी बच्चों ने उन्हें सर-आंखों पर बिठा लिया। सुलोचना फुर्सत के क्षणों में अतीत के पन्नों को पलटतीं। सोचकर अजीब सा लगता कि अब तो देश भी आजाद हो गया, लेकिन औरतें कब आजाद होंगी। दहेज-उत्पीडन और यंत्रणाओं को आज भी वे सहने को विवश हैं। उनके पति समीर उनसे उम्र में बडे जरूर थे, लेकिन उन्होंने कभी किसी बात के लिए पत्नी को प्रताडित नहीं किया। उनके मन में सुलोचना की कम उम्र को लेकर असुरक्षाएं जरूर थीं, लेकिन इसके लिए भी कभी प्रत्यक्ष वार उन्होंने नहीं किया। आर्थिक समस्याओं से अकेले जूझते रहे। उन्हें हर तरह से सुरक्षा दी, लेकिन आज तो लडकी डरते-डरते ससुराल जा रही है। उसे पता नहीं होता कि वह जहां जा रही है, वहां उसे इंसान की तरह भी रहने दिया जाएगा या नहीं..।


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आज पहली बार ऋतिका के कहने पर उन्होंने अपनी स्मृति-मंजूषा खोली थी। ऋतिका हतप्रभ बैठी ताई की दास्तां सुनती रही। ताई ने मन की तहों में इतनी पीडा छुपा रखी है, यह तो वह जानती नहीं थी। लडकी की सुरक्षा का आधार उसका नैहर ही होता है, जिसे ताई ने व्यथित होकर सदा के लिए त्याग दिया था। ऋतिका का गला अवरुद्ध हो गया। कैसेट पर फिर किसी ने सहगल का गीत चला दिया था। अब वह यह गीत नहीं सुन सकेगी। उसने धीरे से उठकर गाने को बंद कर दिया और आंखें मूंद कर बैठ गई, लेकिन दिल में फिर वही गीत गूंजने लगा….बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए


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