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कोरे काग़ज़: अमृता प्रीतम -(पार्ट-1)

कहानियां
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कोरे काग़ज़ एक युवा मन की कितनी कातरता, कितनी बेचैनी उसमें उभरकर आयी है इसका अनुमान आप उपन्यास प्रारम्भ करते ही लगा लेगें। चौबीस वर्षीय पंकज को जब यह पता चलता है कि उसकी माँ उसकी माँ नहीं है तब अपनी असली माँ अपने असली बाप को जानने की तड़प उसे दीवानगी की हदों तक ले जाती है।

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यह सत्ताईस अक्टूबर का दिन था-माँ की ज़िन्दगी का बचा-खुचा-सा।
माँ की देह में अभी पाँचों तत्त्व जुड़े हुए थे, पर जोड़नेवाले प्राणों के धागें की गाँठ बस खुलने को ही थी। उसने काँपते होठों से पाँच ख़्वाहिशें ज़ाहिर कीं-
शायद एक-एक तत्त्व की एक-एक ख़्वाहिश थी। सबसे पहली ख़्वाहिश कि मैं पीपलवाले मन्दिर में जाकर पण्डित निधि महाराज को बुला लाऊँ। और साथ ही, दूसरी ख़्वाहिश थी कि लौटते हुए ताज़े फूलों का एक हार ख़रीद लाऊँ।



पीपलवाला मन्दिर दूर नहीं, हमारी गली के मोड़ पर है, इसलिए तेज़ क़दमों से जाने में सिर्फ़ तीन मिनट लगे, और लौटते हुए लगभग अस्सी बरस के निधि महाराज को कन्धे का सहारा देकर चलने में लगभग पन्द्रह मिनट। एक फूलवाला मन्दिर के चबूतरे के पास ही बैठकर फूल बेचता है, इसलिए फूलों का हार उतनी देर में ख़रीद लिया, जितनी देर में निधि महाराज ने उठकर पावों में खड़ाऊँ पहनी…
माँ ने प्राणों के धागे की गाँठ शायद कसकर पकड़ी हुई थी। मैं जब वापस आया, माँ की देह के पाँचों तत्व अभी भी जुड़े हुए थे…



निधि महाराज को आसन देकर, मैंने माँ की तरफ़ देखा। मां ने काँपते हुए हाथों से सामने दीवार पर लगी हुई, मेरे पिता की तस्वीर की ओर इशारा किया। मैंने दीवार से तस्वीर उतारी और माँ के बिस्तर पर ले आया।
तस्वीर को छाती के पास टिकाकर, माँ ने सिरहाने की ओर इशारा किया, सिरहाने के नीचे पड़ी हुई चाबी की ओर। और फिर कमरे के कोने में गड़े हुए लकड़ी के सन्दूक़ की ओर।

अब माँ की अगली दो ख़वाहिशें और थीं। यह कि सन्दूक़ में से मैं मौलियों से बँधे हुए काग़ज़ भी निकाल लाऊँ, और किनारीवाला एक दुपट्टा भी।
माँ है सो माँ ही कहूँगा, पर उम्र के लिहाज़ से नानी या दादी भी कह सकता था। हैरानी इसलिए हुई, जब माँ ने वह किनारी जड़ा दुपट्टा अपने सिर पर ओढ़ लिया।
मौलियों में बँधे हुए काग़ज़ उसने एक बार अपने हाथों में भरे, फिर मेरी दोनों हथेलियों पर रख दिये। कहा, ‘‘तुम्हारी अमानत है।’’



उस वक़्त माँ ने नहीं, निधि महाराज ने कहा, ‘‘पंकज बेटा ! यह मकान की वसीयत है। दूसरे काग़ज़ भी ज़रूरी हैं। सँभालकर रखना है।’’ साथ ही, माँ का इशारा पाते ही निधि महाराज ने मेरे सिर पर हाथ रखा, कुछ कहा, कुछ आशीर्वाद जैसा। पर संस्कृत का वह श्लोक मेरी समझ से दूर मात्र मेरे कानों का स्पर्श पाकर रह गया।
फिर माँ ने पतझड़ के पत्तों जैसे हाथों में फूलों का हार थामा और मेरे पिता की तस्वीर पर चढ़ा दिया। फिर निधि महाराज की ओर देख टूटती-सी आवाज़ में कहने लगी, ‘‘आज सत्ताईस तारीख़…आज बृहस्पति तुला में आया है…आज मेरा संजोग है…’’



निधि ने दोनों हाथ आशीष की मुद्रा में ऊपर उठाये।
माँ ने अभी-अभी जब एकटक मेरी ओर देखा था, उसकी देह का स्पन्दन-शायद सारे अंगों में से निकलकर, उसकी आँखों में इकट्ठा हो गया था। पर अब उसकी आँखें बन्द थीं….
अपनी साँस मुझे चलती हुई नहीं, रुकती हुई-सी लगी।
घर की यह कोठरी शायद शान्त समाधि की अवस्था में पहुँच जाती, पर निधि महाराज के संस्कृत के श्लोकों ने सारी कोठरी में एक हलचल-सी पैदा कर दी….

हार के फूलों की सुगन्ध भी एक हलचल की तरह कमरे में फैल रही थी…
माँ के हाथ हिले-नमस्कार की मुद्रा में, और निधि महाराज के पैरों की तरफ़ जा झुके। साथ ही, हाथों में पहनी हुई सोने की दो चूड़ियाँ निधि महाराज के चरणों के पास रख दीं…
माँ के होंठ-चेहरे की झुर्रियों में दो झुर्रियों की तरह ही सिकुड़े हुए थे, पर उनमें से जैसे एक आवाज़ झरी, ‘‘मेरा पंकज मुझे अग्नि देगा…’’



जवाब में निधि महाराज ने श्लोकों की लय को थामकर कहा, ‘‘इच्छा पूरी होगी।’’
लगा-माँ के चेहरे की खिंची हुई झुर्रियाँ शान्त और सहज हो गयी हैं। आवाज़ भी सहज लगी, ‘‘गंगाजल….’’
जानता था-माँ ने आले में गंगाजल का लोटा रख छोड़ा है, मैंने चम्मच से माँ के मुँह में गंगाजल डाला।
होंठों में स्पन्दन-सा हुआ, जो पानी की कुछ बूँदों के साथ शान्त हो गया।
फिर कोई आवाज़ नहीं आयी। यहीं गंगाजल की कुछ बूँदें शायद माँ की पाँचवीं और आख़िरी ख़्वाहिश थी…
और लगा-प्राणों का धागा अब पाँच तत्त्वों को खोल रहा था…

पाँच तत्त्व-अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश हैं, और माँ की पाँच ख़्वाहिशें शायद एक-एक तत्त्व की एक-एक इच्छा की तरह थीं, पर नहीं जान पाया कि कौन-सी ख़्वाहिश कौन-से तत्त्व ने की थी…सिर्फ़ यही जाना कि पाँचों ख़्वाहिशें पूरी हो गयीं थीं, और अब पाँचों तत्त्व खुल-बिखर रहे थे…
निधि महाराज ने घी का एक दीया जलाकर माँ के सिरहाने के पास रख दिया।
बाहरवाले कमरे में अचानक किसी के आने की आहट महसूस हुई, शायद माँ की पड़ोसन रक्खी मौसी आयी थी, और साथ में गली-मोहल्ले का कोई और भी…पर मैं उधर देखता कि तभी दहलीज़ की ओर एक अपरिचित-सी आवाज़ सुनाई दी, ‘‘नमस्कार महाराज !’’



निधि महाराज ने दरवाज़े की ओर देखा, दोनों हाथ उठाकर नमस्कार स्वीकार किया, और आसन से उठकर उस ओर बढ़े….
मैंने अपरिचित आवाज़ वाले को पहचान लिया। दूर के रिश्ते से मेरा चाचा है वह-जनक चाचा। दो गलियों के फ़ासले पर रहता है। पता था कि उन लोगों का हमारे घर आना-जाना नहीं था, तो भी हैरानी नहीं हुई। ऐसे वक़्त शायद उसका आना स्वाभाविक ही था।
पर हैरानी हुई-इस शोक में शरीक होने के लिए आया है चाचा। अन्दर कोठी की तरफ़ नहीं आया वह। दरवाज़े में से ही पीछे बाहर के कमरे की ओर लौटता हुआ, निधि महाराज से कहने लगा, ‘‘पता लगा था कि बचेगी नहीं, इसलिए मैं आपसे बात करने के लिए मन्दिर गया था…’’

निधि महाराज दहलीज़ को लाँघकर बाहर के कमरे में जाकर खड़े हो गये। उन्हीं की आवाज़ आयी, ‘‘कहिए !’’
जवाब में चाचा की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘आप वेदों के ज्ञाता हैं महाराज ! आपसे भी कहना होगा ? आप सब जानते हैं।’’
निधि महाराज की मुस्कराहट दिखाई नहीं दी, पर जितनी भी अक्षरों में से दिखाई दे सकती है, वह दिख गयी। कह रहे थे,‘‘यदि सब जानता हूं, तो फिर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं ।’’
निधि महाराज ने कुछ न कहने का जैसे आदेश ही दिया था, पर कहनेवाले ने फिर भी कहा, ‘‘बस यही शंका निवृत करनी थी, महाराज ! कि देह को अग्नि देनी होगी, जिसके लिए कुल के बेटे को बुलाने के लिए अभी सन्देश भेजना होगा। आप जानते हैं कि मेरा बेटा शहर में नहीं रहता….’’

निधि महाराज की उम्र अस्सी के क़रीब है, इसलिए उनकी आवाज़ में एक लड़खड़ाहठ-सी रहती है, पर इस वक़्त जो आवाज़ सुनी वह ऊँची नहीं थी, लेकिन बहुत सख़्त थी-
‘‘कुल का बेटा उसके पास खड़ा है, कहीं से बुलाना नहीं पड़ेगा।’’
जवाब में चाचा का स्वर काँप उठा, ‘‘क्या कह रहे हैं महाराज ! क्या पंकज अग्नि देगा ?’’
‘‘हाँ, पंकज अग्नि देगा।’’ निधि महाराज ने जवाब दिया, और साथ ही कहा, ‘‘आप लोग शव-यात्रा में आना चाहें तो ज़रूर आएँ ! मृतक आपके कुल की गृहलक्ष्मी है।’’

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‘‘क्या कह रहे हैं महाराज !’’-लगा, चाचा की आवाज़ हकला गयी। कह रहा था, ‘‘यह अधर्म होगा महाराज ! गृहलक्ष्मी को दत्तक पुत्र अग्नि नहीं दिखा सकता….दत्तक पुत्र वंश का नाम धारण कर सकता है, ज़मीन-जायदाद में से हिस्सा ले सकता है, पर अग्नि नहीं दे सकता…’’
‘‘दे सकता है…’’ निधि महाराज का स्वर उठा। शायद उन्हें कुछ और कहना था, पर उनकी बात को काटती-सी चाचा की आवाज़ आयी, ‘‘यह कौन से वेद में लिखा हुआ है, महाराज ?’’
निधि महाराज का स्वर जितना धीमा था, उतना ही सहज और सख़्त भी, ‘‘जिस दिन वेदों के पठन के लिए आओगे, उस दिन बताऊँगा। इस वक़्त जा सकते हो। चार बजे शव-यात्रा के लिए आ जाना।’’


लगा-एक मृत देह के सिरहाने जल रहे दीये की बाती की तरह, मैं भी चुपचाप जल रहा था…
मैं कौन हूँ ? यह दत्तक पुत्र क्या होता है ? माँ ने निधि महाराज को बुलाकर यह क्यों कहा कि पंकज अग्नि देगा ? क्या उसे मालूम था कि कोई चाचा आकर मुझे अग्नि देने से रोकेगा ?
कुछ समझ में नहीं आया-सिर्फ़ यही जान पाया कि कुछ दीये आरती के थाल में रखने के लिए होते हैं, और कुछ दीये सिर्फ़ मरनेवालों के सिरहाने के पास रखने के लिए…
और मैं शायद आरती के थाल में रखा जानेवाला दीया नहीं हूँ…

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आज अचानक कोई पाताल-गंगा, धरती पर आकर, मेरे पैरों के आगे बहने लगी है..
लगता है-मेरी उम्र के पूरे चौबीस बरस, मेरे सामने एक-एक करके इस नदी में बहते जा रहे हैं…
आज घर में बहुत-सी आवाज़ें इकट्ठी हो गयी थीं। रक्खी मौसी की आवाज़ भी। मेरे सिर को सलहाकर रोती रही। गली के और जाने किस-किस घर से आये मर्दों की आवाजें भी थीं…पर इस वक़्त तक, साँझ सँवला जाने तक, वे सारी आवाज़ें उस पाताल-गंगा में बहती हुई मुझमें बहुत दूर निकल गयी हैं…..

लेकिन सुबह जो जनक चाचा अग्नि देने का अधिकार लेकर आया था, उसकी आवाज़ फिर नहीं फूटी…शायद पाताल-गंगा के किसी पिछले मोड़ पर ही पानी में गिर गयी थी, मैंने देखी नहीं।
निधि महाराज ने मेरे हाथ से माँ के पार्थिव शरीर को अग्नि दिखायी। उस वक़्त उनकी आवाज़ नहीं काँपी, हाँ मेरा हाथ अवश्य काँप गया था..

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