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तुम्हारे यह गोरे हाथ सांवले कैसे हो गए !!! (पार्ट-2) – Hindi Story

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इस कहानी का पहला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें

मुझसे नहीं पी जाएगी चाय, देवयानी ने सोचा और इंकार में सिर हिलाया। चाय तो पीनी ही पडेगी मैडम.. इस अधिकारपूर्ण वाक्य में मधुर शब्दों के साथ ढेर-सा अपनापन उसके ख्ाली मन में भर गया.. कौन है यह अजनबी? लगा, इसे तो वह पहचानती है, जानती है जन्मों से, कहां खोया था अब तक दुनिया की विकृत भीड में, उसकी जिंदगी से अलग! ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी का वजूद उस पर छाने लगा था समूचा।

वह सोच में पड गई। इतनी आसक्ति क्यों हो रही है। फिर तो न चाहते हुए भी आत्मा भटकने लगी उसकी झलक भर पाने को। उसने पाया कि अविनाश की आत्मा भी उसके लिए छटपटा रही है। दोनों जैसे दो जिस्म एक प्राण हो गए। क्या था जिसने दो अजनबियों को इस तरह एकसूत्र में जोड दिया था!


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अविनाश पर पत्रिका की जिम्मेदारी है। हर पल काम में डूबा रहता है। देवयानी को लगता है कि उसके प्राण उसके जिस्म को छोड कर अविनाश में बस गए हैं। उसकी सेहत एकाएक बिगडने लगी है। बुख्ार बढता देख नेहा को चिंता होने लगी। किसी तरह देवयानी को नींद आई तो अविनाश का नंबर खोजने लगी, सौभाग्य से मिल गया। फोन पर अविनाश शरारत से बोला, बुख्ार है तो डॉक्टर को फोन कीजिए! मैं क्या करूंगा? उसने देवयानी को उसके हाल पर छोडने का मन बना लिया। आखिर प्रेम ही सब कुछ तो नहीं है..।

कुछ ही देर बाद उसने बाइक की घर्र-घर्र की आवाज पर अपने कमरे की खिडकी से झांका। अविनाश हाथ में डायरी थामे उतर रहा है। कुछ देर बाद ही उसने देवयानी की सिसकियां सुनीं। देखा, अविनाश देवयानी के आंसू पोंछते हुए उसे समझा रहा था, मुझे इतना कमजोर मत बनाओ देवयानी कि जिम्मेदारियों को छोड कर बार-बार तुम्हारे पास आना पडे। फिर वह शरारत में गुनगुनाने लगा, और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा..।


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लेकिन मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती अविनाश.., देवयानी की आंखें बरसने लगीं। अविनाश उसका सिर सहलाने लगा, जानता हूं मैं, तुम्हें हर पल अपने भीतर महसूस करता हूं, लेकिन तुम मेरी कमजोरी नहीं, ताकत हो देवयानी..। अविनाश के तपते अधर देवयानी के बुखार से तपते ललाट को सहलाने लगे। इस स्पर्श में इतना शीतल और कोमल एहसास था कि देवयानी का प्रचंड बुखार धीरे-धीरे उतरने लगा। वह खुद को फूल-सा हलका महसूस करने लगी। खिडकी पर खडी नेहा के हाथ स्वत: जुडने लगे उस ढाई आखर के प्रति, जो विराट था, दिग्दिगंत तक फैला था और जिसकी गहराई और ऊंचाई को मापना मनुष्य की हद से बाहर था। पीडा और सुख के बीच वह किसी गूंगे का गुड था। उसके होंठ अनायास बुदबुदाने लगे, यह इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजै, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है..।


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