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बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गांव के जमींदार और नंबरदार थे. उनके पितामह किसी समय बड़े धन-धान्य संपन्न थे. गांव का पक्का तालाब और मंदिर जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी, उन्हीं के कीर्ति-स्तंभ थे. कहते हैं इस दरवाजे पर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैंस थी, जिसके शरीर में अस्थि-पंजर के सिवा और कुछ शेष न रहा था, पर दूध शायद बहुत देती थी, क्योंकि एक न एक आदमी हांड़ी लिए उसके सिर पर सवार ही रहता था. बेनीमाधव सिंह अपनी आधी से अधिक संपत्ति वकीलों को भेंट कर चुके थे. उनकी वर्तमान आय एक हजार रुपये वार्षिक से अधिक न थी. ठाकुर साहब के दो बेटे थे. बड़े का नाम श्रीकंठ सिंह था. उसने बहुत दिनों के परिश्रम और उद्योग के बाद बी.ए. की डिग्री प्राप्त की थी. अब एक दफ्तर में नौकर था. छोटा लड़का लाल-बिहारी सिंह दोहरे बदन का, सजीला जवान था. भरा हुआ मुखड़ा, चौड़ी छाती. भैंस का दो सेर ताजा दूध वह उठ कर सबेरे पी जाता था.
श्रीकंठ सिंह की दशा बिलकुल विपरीत थी. इन नेत्रप्रिय गुणों को उन्होंने बी.ए.–इन्हीं दो अक्षरों पर न्योछावर कर दिया था. इन दो अक्षरों ने उनके शरीर को निर्बल और चेहरे को कांतिहीन बना दिया था. इसी से वैद्यक ग्रंथों पर उनका विशेष प्रेम था. आयुर्वेदिक औषधियों पर उनका अधिक विश्वास था. शाम-सबेरे उनके कमरे से प्राय: खरल की सुरीली कर्णमधुर ध्वनि सुनायी दिया करती थी. लाहौर और कलकत्ते के वैद्यों से बड़ी लिखा-पढ़ी रहती थी.
श्रीकंठ इस अंगरेजी डिग्री के अधिपति होने पर भी अंगरेजी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे, बल्कि वह बहुधा बड़े जोर से उसकी निंदा और तिरस्कार किया करते थे. इसी से गांव में उनका बड़ा सम्मान था. दशहरे के दिनों में वह बड़े उत्साह से रामलीला होते और स्वयं किसी न किसी पात्र का पार्ट लेते थे. गौरीपुर में रामलीला के वही जन्मदाता थे. प्राचीन हिंदू सभ्यता का गुणगान उनकी धार्मिकता का प्रधान अंग था. सम्मिलित कुटुम्ब के तो वह एक-मात्र उपासक थे. आजकल स्त्रियों को कुटुम्ब में मिल-जुल कर रहने की जो अरुचि होती है, उसे वह जाति और देश दोनों के लिए हानिकारक समझते थे. यही कारण था कि गांव की ललनाएं उनकी निंदक थीं! कोई-कोई तो उन्हें अपना शत्रु समझने में भी संकोच न करती थीं! स्वयं उनकी पत्नी को ही इस विषय में उनसे विरोध था. यह इसलिए नहीं कि उसे अपने सास-ससुर, देवर या जेठ आदि घृणा थी, बल्कि उसका विचार था कि यदि बहुत कुछ सहने और तरह देने पर भी परिवार के साथ निर्वाह न हो सके, तो आये-दिन की कलह से जीवन को नष्ट करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि अपनी खिचड़ी अलग पकायी जाय.
आनंदी एक बड़े उच्च कुल की लड़की थी. उसके बाप एक छोटी-सी रियासत के ताल्लुकेदार थे. विशाल भवन, एक हाथी, तीन कुत्ते, बाज, बहरी-शिकरे, झाड़-फानूस, आनरेरी मजिस्ट्रेट और ऋण, जो एक प्रतिष्ठित ताल्लुकेदार के भोग्य पदार्थ हैं, सभी यहॉँ विद्यमान थे. नाम था भूपसिंह. बड़े उदार-चित्त और प्रतिभाशाली पुरुष थे, पर दुर्भाग्य से लड़का एक भी न था. सात लड़कियां हुईं और दैवयोग से सब की सब जीवित रहीं. पहली उमंग में तो उन्होंने तीन ब्याह दिल खोलकर किये, पर पंद्रह-बीस हजार रुपयों का कर्ज सिर पर हो गया, तो आंखें खुलीं, हाथ समेट लिया. आनंदी चौथी लड़की थी. वह अपनी सब बहनों से अधिक रूपवती और गुणवती थी. इससे ठाकुर भूपसिंह उसे बहुत प्यार करते थे. सुन्दर संतान को कदाचित उसके माता-पिता भी अधिक चाहते हैं. ठाकुर साहब बड़े धर्म-संकट में थे कि इसका विवाह कहॉँ करें? न तो यही चाहते थे कि ऋण का बोझ बढ़े और न यही स्वीकार था कि उसे अपने को भाग्यहीन समझना पड़े. एक दिन श्रीकंठ उनके पास किसी चंदे का रुपया मॉँगने आये. शायद नागरी-प्रचार का चंदा था. भूपसिंह उनके स्वभाव पर रीझ गये और धूमधाम से श्रीकंठसिंह का आनंदी के साथ ब्याह हो गया.
आनंदी अपने नये घर में आयी, तो यहॉँ का रंग-ढंग कुछ और ही देखा. जिस टीम-टाम की उसे बचपन से ही आदत पड़ी हुई थी, वह यहां नाम-मात्र को भी न थी. हाथी-घोड़ों का तो कहना ही क्या, कोई सजी हुई सुंदर बहली तक न थी. रेशमी स्लीपर साथ लायी थी, पर यहां बाग कहां. मकान में खिड़कियां तक न थीं, न जमीन पर फर्श, न दीवार पर तस्वीरें. यह एक सीधा-सादा देहाती गृहस्थी का मकान था, किन्तु आनंदी ने थोड़े ही दिनों में अपने को इस नयी अवस्था के ऐसा अनुकूल बना लिया, मानों उसने विलास के सामान कभी देखे ही न थे.
(शेष अगले अंक में……)
Premchand Story in Hindi
प्रेमचंद की कहानी
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