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सुधीर, आज मैं बहुत परेशान हूं। कोई राह नहीं सूझ रही। एक ओर दिव्या है, दूसरी ओर अंश। किस ओर जाऊं? एक मां के लिए इससे दुखदायी स्थिति क्या हो सकती है कि वह अपने बच्चों की नाराजगी झेले। तुम्हारी तसवीर के सामने खडी हूं और तुम्हें हजार बार धोखेबाज कहती हूं। जानती हूं, धोखा तुमने नहीं, समय ने दिया है। तुम कहते थे, नंदा तुम्हारी मांग में चमकता सिंदूर सुबह की लालिमा जैसा है, मुझे आसमान के सूरज की जरूरत कहां? तुम्हारी बातें, तुम्हारा प्यार सब तुम्हारे साथ चला गया। मेरे पास बचा सिर्फ स्याह अंधेरा, जिसमें मैं खुद को खोजने की विफल कोशिश करती हूं। हर पल मन में एक ही सवाल कौंधता है कि मैंने ऐसा कौन सा अपराध किया कि विधाता ने मुझे वैधव्य का रीता रंग थमा दिया। तुम तो मुझसे कह गए थे, बस दो दिन की बात है नंदा, ऑफिस का काम पूरा होते ही आ जाऊंगा.., कहां लौटे तुम? आई सिर्फ तुम्हारी खबर..। अचानक तुम्हें क्या हुआ, किसी को पता नहीं चला। ऑफिस के लोग कहते रहे, मैडम, साहब रात को खाना खाकर सोने गए। सुबह जब हम उन्हें उठाने गए, सब खत्म था..। मैं जानती हूं ऐसा क्यों हुआ? तुम बहुत अच्छे इंसान थे और अच्छे इंसान की जरूरत ऊपर वाले को भी होती है। तुम्हारे जाने के बाद दिव्या और अंश मेरे जीने का उद्देश्य बन गए। तुम्हारी बेटी बिलकुल तुम्हारी छाया है, निडर और स्पष्टवादी। उसे देखकर ही तो मुझे जीने की ताकत मिलती रही है। तुम उससे कहते थे कि बोर्ड परीक्षा में चाहे जितने भी व्यस्त हो, उसे स्कूल छोडने तुम ही जाओगे, लेकिन ऐसा कहां हो सका! जिस दिन दिव्या ने पहला पेपर दिया, तुम्हारा चौथा था..।
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सुधीर, तुम्हारी गुडिया उस दिन अचानक ही बडी हो गई।। हमेशा सुनती थी कि बच्चे बडों का अनुसरण करते हैं, लेकिन मैंने तो उस छोटी सी बच्ची से जीना सीखा। तुम्हारे जाने के बाद मेरे लिए सब कुछ बदल गया। तुम्हारे रहते तो मैं घर से बाहर की दुनिया के बारे में कुछ भी नहीं जानती थी। कुछ समय तक तो लोगों ने सहानुभूति और अपनत्व दिखाया, लेकिन फिर सब अजनबी हो गए। तुम्हारे ऑफिस में नौकरी मिली। हालांकि पहले बुरा भी लगता था कि एक अधिकारी की पत्नी अनुंकपा के आधार पर मिली क्लर्क की नौकरी कर रही है, मगर फिर इस चुभन ने मेरे भीतर एक संकल्प को जन्म दिया। मैंने सोचा, चाहे जितनी भी परेशानी आए, दिव्या को पढाऊंगी, ताकि उसे कभी अपनी मां की तरह न जीना पडे। तुम्हारा बेटा अंश डॉक्टर बनना चाहता था, यह तुम्हारा भी सपना था। तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे सपनों को मैंने दिल में बसा लिया। लेकिन एक बात मेरी लाख कोशिशों के बावजूद नहीं बदली। मैं चाहती थी कि अंश तुम्हारी तरह खिलखिलाता रहे, किंतु तुम्हारे जाने के बाद तो जैसे वह मुस्कराना भी भूल गया। उसके मन की बात समझना मेरे लिए मुश्किल होता गया। तुम्हारी नन्ही कली दिव्या ने मुझसे कभी कुछ नहीं छुपाया। वह अपनी हर बात मुझसे शेयर करती थी, मां मुझे आपका नौकरी करना अच्छा नहीं लगता। बस, अब मैं जल्दी पढाई पूरी करके नौकरी कर लूंगी। आप फिर आराम से घर में बैठना ..।
सुधीर, तुम भी तो यही कहते थे, नंदा जब मैं ऑफिस से लौटूं, दरवाजा तुम ही खोला करो। तुम्हारी इस बात में पुरुष अहं नहीं, बल्कि प्यार था, जिसकी डोर में मैं हमेशा बंधे रहना चाहती थी। विभा दीदी मेरा कितना मजाक बनाती थीं। वही क्यों, मेरी अन्य सहेलियां आशा, नैना व मिसेज शर्मा भी तो यही कहती थीं, नंदा, भाई साहब तो शाम को लौटेंगे, अभी तो हमारे साथ बाजार चल सकती हो। मैं मना कर देती। मुझे क्या पता था कि एक दिन तुम ऐसे जाओगे कि लौटोगे ही नहीं। सुधीर, अब तुम्हारा इंतजार कैसे करूं..?
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मैं फिर भावनाओं में बहने लगी हूं शायद। मैं तुम्हें दिव्या के बारे में बता रही थी। बी.कॉम. के बाद दिव्या ने नौकरी करने की जिद ठान ली। मैंने लाख समझाया, वह नहीं मानी। अंत में मैंने उसे कसम दी। जानती हूं, इस बात से तुम नाराज होगे, क्योंकि तुम्हें कसम खाना बिलकुल पसंद नहीं था। तुम कहते थे, नंदा कसम कमजोर इंसान का कवच है। रिश्तों में प्रेम व विश्वास है तो कसम की कोई जगह नहीं होनी चाहिए..। सुधीर, मैं कमजोर थी शायद। कसम देने पर तुम्हारी बेटी मान तो गई, लेकिन उसने भी शर्त रखी कि वह अपनी पढाई का खर्च खुद उठाएगी। तुम जो छोडकर गए हो, सब तुम्हारे बच्चों का ही है, लेकिन दिव्या की जिम्मेदारी ने मुझे हौसला दिया। उसकी समझदारी, भावुकता व सबसे बढकर परिवार के प्रति उसका समर्पण मेरे दर्द पर मरहम का काम करता रहा। दिव्या ने एम.बी.ए. की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर वह बैंक से एजुकेशन लोन लेकर आगे की पढाई के लिए मुंबई चली गई। मैं घर में अकेली रह गई। अंश तो दो साल पहले ही एम.बी.बी.एस. करने मेडिकल कॉलेज चला गया था। पूरा घर मुझे काट खाने को दौडता। कभी-कभार विभा दीदी मिलने आतीं तो वीरान घर में कुछ रौनक होती। तुम्हारी यादें ही मेरा जीवन बन गई हैं सुधीर…..
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