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मन की चंचलता रोगों का जड़ ।

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अपने यहाँ मानव के सर्वांगीण विकास की कल्पना की गई है । सर्वांगीण विकास मतलब मनुष्य शरीर , मन , आत्मा और बुद्धि चारों से विकसित हो । इसे हमारे ऋषि – महर्षियों ने भी स्वीकारा है और आज का विज्ञान भी समर्थन करता है कि एक बालक के अंदर यदि इन चारों तत्वों का विकास होता है तो वह एक पूर्ण मानव के रूप में अपने तमाम लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है , कहा गया है कि “शरीरमादयम खलु धर्मसधानम “ – शरीर समस्त धर्म का साधन है । हमारी ज्ञान शक्ति , इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम शरीर है । स्वामी विवेकानंद ने शारीरिक विकास पर काफी बल दिया है । उन्होने कहा है – अनंत शक्ति ही धर्म है । बल पुण्य है और दुर्बलता पाप , सभी पापों और सभी बुराइयों के लिए एक ही शब्द पर्याप्त है और वह है – दुर्बलता … गीता के अभ्यास की अपेक्षा फूटबाल खेलने के द्वारा तुम स्वर्ग के अधिक निकट पहुँच जाओगे । तुम्हारी कलाई और भुजाएँ अधिक सुदृढ़ होने पर तुम गीता को अधिक अच्छी तरह समझोंगे । “ स्वामी जी के इन शब्दों से स्पष्ट रूप से यह ध्यान आता है कि जब बालक शारीरिक रूप से मजबूत होता है तो वह किसी बात को और ठीक ढंग से समझने की क्षमता प्राप्त कर लेता है । दुर्बल शरीर से ज्ञान प्राप्त करना तो दूर ठीक से खड़ा होना भी मुश्किल हो जाता है । वास्तव में शारीरिक विकास के साथ – साथ बालक का प्राणिक , मानसिक , नैतिक एवं आत्मिक विकास भी होता है । किन्तु सिर्फ शारीरिक विकास मात्र कर लेने से सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास नहीं हो जाता इसके लिए मन का विकास भी आवश्यक है , वैसे हमने इस लेख को मन पर ही केन्द्रित किया है । हम सभी जानते हैं कि मन बहुत ही चंचल है । क्षण – क्षण बदलता रहता है । मन बदलता रहता है तो बुद्दि भी स्थिर नहीं रहता इसलिए कहा गया है कि शरीर के विकास के साथ –साथ मन के विकास पर भी ध्यान देना आवश्यक है । मन पर जिनका नियंत्रण है , उनका नैतिक विकास भी उन्नत है , वे अच्छे कर्म में प्रवृत रहते हैं , लेकिन जिनका मन नियंत्रित नहीं है उनकी बुद्धि भी भ्रष्ट रहती है और कर्म निश्चित रूप से हितदायक नहीं होता । मन को छठी ज्ञानेन्द्रिय भी माना गया है । मन का काम है विषयवस्तु के विम्ब को दृष्टि ,श्रुति , घ्राण , स्वाद और स्पर्श द्वारा प्राप्त करना और उन्हे विचार संवेदनाओं में अनूदित करके निर्णय हेतु बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करना । मानसिक विकास में एवं ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनाओं को व्यवस्थित रीति से ग्रहण करने में मन की चंचलता सबसे बड़ी बाधा है । इसके बाद बाद बुद्धि का काम होता है पर मूल में मन ही होता है. हमारी इंद्रियाँ मन के संयोग से ही कार्य करती हैं । मनुष्य मन से देखता , सुनता है । मन इंद्रियों एवं शरीर से पृथक ज्ञान का करण अर्थात साधन है स्थूल शरीर मन की बाहरी परत है । मन शरीर का सूक्ष्म अंश होने के कारण दोनों का एक – दूसरे पर प्रभाव डालता है । यही कारण है कि शरीर का रोग बहुधा मन को प्रभावित कर देता है और मानसिक अस्वस्थता या तनाव शरीर को रुग्ण बना देता है । वर्तमान चिकित्सा विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि शारीरिक रोग मन के अस्वस्थ होने के परिणामस्वरूप ही पनपते हैं । इसलिए मन को साधने पर बल दिया गया है । मन को साधने से एकाग्रता आती है शिक्षा के लिए भी मन की एकाग्रता आवश्यक है । एकाग्रता की शक्ति जितनी अधिक होगी ज्ञान प्राप्ति भी उतनी अधिक होगी । स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि मेँ तो मन कि एकाग्रता को ही शिक्षा का यथार्थ सार मानता हूँ । पर मन को साधना इतना आसान भी नहीं है । इसे अभ्यास के द्वारा साधा जा सकता है । गीता में भी श्री कृष्ण ने कहा है कि मन चंचल है और कठिनता से वश में होने वाला है परंतु हे कुंती पुत्र अर्जुन अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है । योग इसका एक अच्छा माध्यम है । मन और इसके साधने पर हमारे लोगो ने बहुत कुछ कहा है ।
पर मूल में मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि हमारी सभी बुराइयों का जड़ मन का चंचल होना है ,चंचलता के कारण ही मनुष्य अच्छा – बुरा का विवेक नहीं कर पाता निर्णय नहीं ले पाता । नतीजतन वह मानसिक रूप से अस्वस्थ रहता है अतएव मानसिक अस्वस्थता को समाप्त कर विवेक का जागरण करना चाहते हैं तो मानसिक शिक्षा पर बल देना होगा , मन को योग के अभ्यास से नियंत्रित करना होगा फिर बुद्धि भी ठीक हो जाएंगी तो एक स्वच्छ , स्वस्थ मनुष्य और समाज की रचना शायद संभव हो जाय । पर दुर्भाग्य से इस ओर अबतक ध्यान नहीं दिया गया है , दिया भी गया है तो व्यक्तिगत स्तर पर जहां कुछ लोग ही इसका लाभ उठा पाते हैं ।

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