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मन के अंदर बहुत दिनों से एक बात खटक रही थी । भारत की शिक्षा काफी उन्नत रही ,गुरुकुल परंपरा रही । विश्व को ज्ञान बांटा और विश्व गुरु रहा फिर भी जब ज्ञान की बात होती है ,शिक्षा की चर्चा होती है तो उदाहरण विदेशी विद्वानों की दी जाती है । भारतीय शिक्षा के मनोविज्ञान को पाश्चात्य शिक्षा के मनोविज्ञान की दृष्टि से देखा जाता है । नीत्से ,वॉटसन भारतीय शिक्षा के हमारे मोडेल हो गए हैं । भारतीय शिक्षा ज्ञान और उसके व्यवहार पर बल देता है , जबकि पाश्चात्य शिक्षा ज्ञान तक ही सीमित है । दोनों में बुनियादी अंतर है । सच तो यह है कि दोनों में कोई तुलना ही नहीं है फिर ,भारतीय शिक्षा के प्रसंगों पर पश्चिमी उदाहरण क्यों ? हम प्राचीन ग्रन्थों या महापुरुषों की तरफ नज़र करते हैं तो पाते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में जितना विचार भारत में हुआ है उतना शायद ही कहीं हुआ है । ज्ञान और व्यवहार दोनों में ही समानता है । गीता को ही हम देखे तो उसमें क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का उल्लेख है और इनके परिष्कार की बात कही गई है । शिक्षा की परिभाषा के अनुसार भी व्यक्ति का परिष्कार ही शिक्षा का उदेश्य है । वेदों एवं उपनिषद तो पूरी की पूरी शिक्षा ही हैं । इनकी प्रत्येक पंक्ति में ज्ञान भरा हुआ है । यदि इन ग्रन्थों का अध्ययन किया जाय तो मुझे लगता है कि शिक्षा के उदाहरण के लिए विदेश की ओर मुँह नहीं ताकना होगा और भारत की शिक्षा का उदाहरण देना गौरव की बात होंगी । ग्रन्थों के अतिरिक्त हमारे महापुरुष भी ज्ञान के जीते जागते भंडार थे । उनके प्रत्येक कार्यों में एक सीख थी । जिज्ञासा ,एकाग्रता , दृढ़ इच्छाशक्ति ,समस्या ,चुनोतियों से लड़ने की क्षमता विकसित करने की शक्ति मिलती है । पर , हम इसे उपेक्षा भाव से देखते हुए हनुमान , नारद , श्री कृष्ण की बजाय नीत्से आदि की चर्चा करना ज्यादा पसंद करते है । इसलिए आवश्यकता है कि हम अपने ग्रन्थों तथा महापुरुषों के कार्यों एवं शिक्षा का मंथन करें । इसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुए मन में विचार आया कि हमारे शिक्षा के प्रतिमान यानि मोडेल भारतीय ही होने चाहिए
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