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होली मनाने में अपने गाँव जा रहा था । ट्रेन में बैठे कुछ युवक होली को लेकर आपस में बात कर रहे थे उसमें कुछ मुस्लिम युवक भी थे । रंगों के इस पर्व को वे ठीक नहीं मान रहे थे । एक युवक जो कुछ ज्यादा ही बोल रहा था उसेने होलिका दहन का प्रसंग उठाया … हा होलिका हिरण्यकशिपु की बहन थी ……. बात को अधूरा रखते हुए उसने टालने वाले अंदाज में कहा कि चलिये , लोग जो कहते हैं वह तो सुनना है …… उसकी बातों से ऐसा लग रहा था कि उसे इन बातों पर कोई विश्वास नहीं है लेकिन लोग कहते हैं तो उसे मानना उसकी मजबूरी है और वह इसे ढ़ो रहा है । मैंने उसे टोका आप ऐसा क्यों कह रहे हैं । कई ऐसी बातें हैं जिसे लोग कहते है और हम उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं उसमें हम ऐसा नहीं कहते कि – लोग कहते हैं …. सुनना …. पड़ता है । लड़का कुछ तर्क किया फिर स्वीकार कर लिया पर संकोचपूर्ण ढंग से कहा कि -हा ! बात सही है । पूरी बात और ट्रेन के कुपे के वातावरण को देखने के बाद मुझे ऐसा महसूस हुआ कि लड़के ने अपनी बात आधुनिकता के फेशन में काही है , यद्यपि उसे अपने पर्व – त्योहार पर गर्व है लेकिन वातावरण आधुनिकता और दूसरे संप्रदाय से जुड़ा था उसमें वह अपनी बात कह पाने की हिम्मत नहीं रखता , लोग क्या कहेंगे की हीन भावना से ग्रस्त है । बात करने से लड़के के अंदर हिम्मत तो आई पर पूरी तरह से नहीं । बहुत देर तक मैं सोच रहा था आखिर ऐसा क्यों होता है क्या आधुनिकता में अपनी संस्कृति , परंपरा को हीनता की ओर धकेल देना चाहिए ? मेरे मस्तिष्क में सारिका पत्रिका में छपी एक कहानी ध्यान में आ गई …. जिसमे दर्शनशास्त्र का एक स्टूडेंट अपने को गंभीर और दार्शनिक दिखाने का स्वांग करता है । लोग उसे ऐसा मानने भी लगते हैं , एक दिन गाँव से तार आया कि उसकी माँ मर गई । तार पढ़कर उसे शोक लगा , अंदर ही अंदर वह रो रहा था पर अपने आँसुओं को बाहर आने देने से रोक रहा रहा था क्योंकि लोग उसे मानते थे कि वह हर्ष – विषाद से परे है , बड़ा दार्शनिक है , उसी समय किसी ने उसके हाथों में तार देख पुछ लिया — क्या सब ठीक हैं न ! उसने अपनी वेदना को दबा धीरे और अनम्यस्क सा कहा – कुछ नहीं , माँ नो मोर..
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