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लो शिक्षक जी भी पीटा गए .

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नालंदा के एकंगरसराय से एक खबर आई कि छात्राओं ने शिक्षक को पीट दिया । पीटने की वजह थी कि सरकार द्वारा दी जाने वाली पोशाक एवं साईकिल की राशि उन्हे नहीं मिली थी और आक्रोशित छात्राओं ने सामने पड़े शिक्षक को भी नहीं बख्शा । खबर सरकार की योजना और योजना से मिलनेवाले लाभ से वंचित बालिकाओं से संबन्धित थी पर थोड़ा इसके मूल में जाय तो एक बहुत बड़ा नैतिक संकट सामने आ रहा है जिसकी कल्पना हमारे बुजुर्गों ने वर्षों पहले की थी । इस प्रकार की घटना शायद पहली बार नहीं हुई इसलिए इसके प्रति चिंता स्वाभाविक है । ऐसा लगने लगा है कि गुरु – शिष्य संबंध में अब बिखराव आने लगा है । इसके लिए शिक्षक और छात्र दोनों ही ज़िम्मेवार माने जाते हैं । बहुत हद तक इसे बदलता हुआ समाज भी प्रभावित करता है । आज शिक्षा का बहुत विस्तार हुआ है और छात्र शिक्षा के प्रति जागरूक भी है पर जितनी रुचि बढ़ी है , शिक्षा का विस्तार हुआ है , समस्या भी उतनी बढ़ी है । हमारे शिक्षाविद बताते हैं कि आज बालकों की मानसिकता को पढ़कर , उसे जानकर , पहचान कर उनके अनुसार शिक्षा नहीं दी जाती , नतीजा बालक दिग्भ्रमित होता रहता है , चूंकि बालक शिक्षक द्वारा बताई हुई बातों को ठीक से नहीं समझ पाता तो उनके प्रति श्रद्धा भी नहीं रखता है । दूसरा कारण पाठ्यक्रम है , इस पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा का कही समावेश नहीं उसपर से भारतीयता से जुड़ी बातों को भी सम्मिलित नहीं की जा रही है तो नैतिकता बालकों में आए तो कहाँ से । हम सभी जानते हैं कि भारतीय मनोविज्ञान की दृष्टि से किशोरावस्था में शारीरिक विकास के साथ –साथ मन और बुद्धि आपस में द्वंदात्मक संवाद करने लगते हैं । इस संवाद को रोकने के लिए हमारी प्राचीन गुरुकुल पद्धति तो कारगर थी पर आज की शिक्षा पद्धति नकारा साबित हो रही है । शिक्षा में आगे बढ़ रहे है पर विवेक नहीं आ रहा है । आज भारतीय किशोर वर्ग में सबसे बड़ी समस्या है कि वह कम से कम समय में अधिक से अधिक लाभ कमाना चाहता है । उसके लिए ज्ञान से ज्यादा अर्थ महत्वपूर्ण है । मन में सर्वश्रेष्ठ बनने की कामना किन्तु उसके अनुरूप व्यवहार एवं कठोर परिश्रम का न होना उनमें असंतोष का सूत्रपात करता है । फलस्वरूप किशोर वर्ग असत की ओर अग्रसर हो जाता है । हम सब महसूस कर रहे हैं कि आज का बालक पूर्ण रूप से अपने भविष्य एवं अपनी सफलता के प्रति अत्यधिक केन्द्रित और जागरूक है । उसके भविष्य और सफलता दोनों के हीं मानदंड भोतिक सुखोपभोग है । अतः वह अपनी भोतिक एवं सांसारिक सफलता के लिए जीवन मूल्यों तथा सिद्धांतों को भी बलि चढ़ा देने में नहीं हिचकता है । इसके उदाहरण भी सामने आ रहे हैं । सीमित साधन , कठिन प्रतिस्पर्धा जैसी अनेक समस्याओं से आज का बालक ग्रसित है । वह स्वयं निश्चित नहीं कर पाता कि कौन सी दिशा में बढ़ना उसके लिए श्रेयस्कर है । यदि उसे कौनसेललिंग भी प्राप्त हो जाता है तो शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त राजनीतिकरण , भ्रष्टाचार उसे और परेशान करता है । शिक्षा में राजनीति का ही परिणाम है कि शिक्षक जी पीट गए । लेकिन , बालकों को अंतर्द्वंदों से बचाने के लिए ऐसे शिक्षकों की जरूरत है जो स्वयं भारतीय मनोविज्ञान के आधारभूत प्रनियमों पर आचरण करते हुए बालकों को मार्गदर्शन एवं निर्देशन कर सकें । पर , क्या यह संभव है ? पिछले 20 वर्षों में जिस प्रकार की शिक्षा दी गई उसमे क्या हमने ऐसे शिक्षकों को बनाया है जो एक संस्कारयुक्त बालकों का निर्माण कर सके । हमारी शिक्षा प्रणाली के मूल मंत्र थे – सत्यं वद , धर्म चर ( धर्म का पालन करो ) स्वाध्याय मा प्रमद : ( स्वाध्याय में प्रमाद मत करों) मातृ देवो भव , पितृ देवो भव , आचार्य देवो भव ( माता ,पिता और आचार्य देव तुल्य हैं ) वृद्ध सेवया विज्ञान्म ( बृद्ध की सेवा से दिव्य ज्ञान होता है ) क्या इस प्रकार की शिक्षा आज दी जा रही है ? नहीं देने के कारण उपर्युक्त सूत्र आज कारगर नहीं दिखते और सभी बड़े उपेक्षित हैं । इस श्रेणी में यदि शिक्षक भी उपेक्षित होते हैं तो आश्चर्य की कोई बात नहीं । न शिक्षक वैसे हैं और न शिष्य वैसे बन रहे हैं । और न शिक्षा का लक्ष्य मोक्ष या निर्वाण प्राप्त करना रह गया है । यास्क मुनि ने शिक्षक की पाँच विशेषता बताई है । उन्होने कहा है कि एक शिक्षक को दूध , यम ,वरुण ,सोम और औषधि की तरह होना चाहिए लेकिन इस तरह की शिक्षा नहीं दी जाती और न शिक्षक अपने को इन विशेषताओं से परिपूर्ण करते हैं । यदि ऐसा हो जाय तो शिष्य भी अच्छा होगा । मित्रों , मैंने विषय को काफी संक्षेप में रखा है । भाव को समझने की जरूरत है । जिस मूल्यहीन शिक्षा को हम प्रश्रय दे रहे हैं उसमे यदि उसमें गुरु – शिष्य संबंध ठीक नहीं रहते और हमारे आचार्य पीट जाते हैं एवं बड़ों के प्रति आदर नहीं रहता तो सामाजिक संरचना को ध्वस्त होने में ज्यादा समय नहीं लगने वाला । मैं यह मानता हूँ कि हमारे शिक्षकों का भी पतन हुआ है पर शिक्षक शब्द आदर सूचक है । इसे आदरात्मक ही होना चाहिए । इसे पीटना नहीं चाहिए (शिक्षकों को भी अपने पद का भान होना चाहिए तदनुरूप कार्य करना चाहिए ) शिक्षक शब्द पीट गया तो मार्गदर्शन शब्द भी समाप्त हो जाएगा । इसलिए ,अभी भी समय है हर स्तर पर नैतिकता का पाठ पढ़ने – पढ़ाने पर बल दिया जाय । तभी एक स्वस्थ समाज की रचना संभव है ।

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