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यह कविता हमारे समाज के उस वर्ग को अंकित है जो निरंतात परिश्रम से अपना पेट भरते है.
मजदूर आदि ., उनके जीवन की कई कहनियो में से ये एक है जो एक नज़र इन लोगों पर दर्शाता है :
*इस रात की सुबह नहीं *
इस काली रात की काली छाया पलटती नहीं
इस रात की सुबह नहीं
शायद दूसरो के काम अउ मेरी लकीर येही सही
बदले में इसके मांगता नहीं कुछ भी बस पेट भरने के लिए
दो वक़्त की रोटी सही दुआ में इसके मांगता कुछ और नहीं
नसीब में मेरे शायद श्रम का फल ही है
खवाब भी आते है ,ऐशो -आराम के पर लकीर के आगे और कुछ नहीं
इस रात की सुबह नहीं
दुःख के आंसूऔ को पी कर जीना मैंने है सिखा
दुखो के आने पर चेहरे से मुस्कराहट खोना मैन नहीं सिखा
पारीश्रम से थकना मैंने नहीं सीखा, दुसुरों के चेहरे पर
हसी देखने को अपना खून पसीना एक है मैंने किया
अपने श्रम से धरती पर कई इमारतों ,घरों का निर्माण है मैन किया
पर नहीं चाहा अदले में इसके कुछ भी अधिक दुखों का बांध टूटने पर भी खड़ा
रहा सामना ऐसे कठिन परिस्थिति का है मैंने किया
मनुष्य की इस नगरी मैं मेरी काया अनेक है
मेरी परिश्रम का क्या सही फल मुझे है मिल रहा या
इस समाज मैं सभी समस्याऒ की तरह मेरी समस्या भी
नज़रअंदाज़ की जा रही है . क्या हमारे जीवन का एक भी एक नया सूरज उगेगा या
क्या इस रात की सुबह नहीं
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