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देवासुर संग्राम वास्तव में दो जातियों एवं दो संस्कृतियों का संघर्ष था। सदैव की भाँति इस युद्ध में भी अंतता एक पक्ष की विजय हुई । विजयी पक्ष देव या आर्य थे जिन्होंने असुर या अनार्यों को पराजित करके उनके घर, जमीन एवं संपत्ति पर अधिकार कर लिया । इतिहास का गहराई से अन्वेषण करें तो अधिकांशतः विजयी पक्ष केवल शत्रु की सम्पत्ति एवं स्त्री आदि पर अधिकार करके ही संतुष्ट नहीं होता अपितु वो अपने चारणों से अपनी इस विजय की यशोगाथा भी लिखवाता है । हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष, विरोचन और बलि आदि एक ही परिवार की पीढि़याँ थीं जिन्होंने उसी समय देवो के विरुद्ध युद्ध में अनार्यो का नेतृत्व किया । अपनी वीरता एवं अद्भुत पराक्रम से इन्होंने कई बार देवजाति को पराजित भी किया था किन्तु जब अंत में देव पराजित करने में सफल रहे तो उन्होंने अपने शत्रुओं के साथ अत्यंत कठोर व्यवहार किया । इनमें से अनार्य बलि की लोकप्रियता, वीरता एवं पराक्रम का प्रभाव तो ये था कि वो अपने प्रियजनों के मध्य बलिराजा नाम से प्रसिद्ध था । कई षड़यंत्रे के बाद भी ये महान बलि की लोकप्रियता का आलम ये है की जनमानस उन्हें याद करते हुए पर्व मनाता है और ‘अला बला जाये, बलि का राज आये’ जैसी प्रार्थना गा कर अपने प्रिय राजा के पुनरागमन की मनौती माँगता हैं।
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