कुपोषण की कालाग्नि में समाहित होते नौनिहाल!
किसी राष्ट्र की जनसंख्या की स्वास्थ्य और पोषणीय स्थिति किसी देश के विकास का महत्वपूर्ण सूचक होती है।जैसे ही एक बच्चे का जन्म होता है वह ना सिर्फ उस परिवार या समाज बल्कि राष्ट्र की संपत्ति कहलाता है।अर्थात अब उस बच्चे की सुरक्षा की जिम्मेदारी अभिभावकों के साथ साथ हमारी सरकार की भी हो जाती है।बात अगर बच्चों में व्याप्त बीमारी कुपोषण की हो तो भारत में मौजूदा ऑकडे भयावहता की ओर इशारा कर रहे हैं।यूनिसेफ के आंकडे सुनकर ही सिहरन होती है कि प्रतिवर्ष देश में पांच वर्ष से कम उम्र के लगभग 10 लाख बच्चे कुपोषण से मर जाते हैं।एक तरफ देश में करोडों की लागत से बनी राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना चल रही है तो दूसरी तरफ ये डरावने आंकडे सरकार की कागजी उपलब्धियों की पोल खोलने को काफी है।शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति अधिक विकट है।ग्रामीण क्षेत्रों की यह विडंबना रही है कि यहां आर्थिक विकास की नगण्यता और ऐच्छिक जागरुकता के अभाव के कारण बहुसंख्य महिलाएं गर्भावस्था में ही पौष्टिक आहार एवं अच्छे स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित रह जाती है तो वहां जन्म लेने वाले बच्चे की शारीरिक और बौद्धिक स्थिति समझी जा सकती है!आलम यह है कि उचित एंव स्थानीय जांच की अनुपलब्धता और ग्रामीण इलाकों में व्याप्त गरीबी और बेरोजगारी से उत्पन्न पोषण और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव नवजातों को एक नया सवेरा देखने से वंचित कर रहा है,और जो बच्चे इस विस्मयकारी माहौल में जन्म ले लेते हैं वे आंगनबाड़ी केंद्रों से मिलने वाले ‘स्वास्थयवर्धक’ और ‘पौष्टिक आहार’ खाने के बाबजूद उम्र के पांच तक के पहाडा पढे बिना ही ना जाने क्यूँ जिंदगी छोड हमारी व्यवस्था पर सवाल खडे कर चले जाते हैं।एक तरफ देश का संविधान नागरिकों को जीवन जीने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है तो दूसरी तरफ मौत की कालाग्नि में समाहित होते लाखों दुधमुंहे बच्चों की मौत की खबरें हमारी त्रिस्तरीय सरकार की कार्यशैली,सहिष्णुता और संवेदनशीलता पर प्रश्नवाचक चिन्ह भी खडे करती है।यह लापरवाही उस समय जबकि हर गांवों में सरकार द्वारा नियुक्त एएनएम और आशा की नियुक्ति की गई है।इनकी जिम्मेदारी ना सिर्फ गर्भवती महिलाओं बल्कि उसके होने वाले बच्चों को भी उचित परवरिश और स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराने की है।आजादी के पहले भी हमारे गांव के लोग स्वास्थ्य और जागरुकता की दृष्टि से अत्यंत ही पिछडे थे और आजादी के छह दशक बाद भी स्थितियां कमोबेश वैसी ही है।यहां एक सवाल उठना लाजिमी है कि इस अर्धशतकीय समयंतराल में बदला क्या? सिर्फ सरकारें, कानून और नीतियां!फिर अब ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था की टूटी रीढ को मजबूत करने की बजाय वर्तमान सरकार द्वारा नागरिकों को ‘स्वास्थ्य का अधिकार’ देना किसी रोते बच्चे को झुनझुना देने सरीखी मालूम पडती है।विडंबना यह कि झारखंड, बिहार,ओडिशा और छत्तीसगढ जैसे दर्जन राज्य भी कुपोषण के पर्याय बन कर उभरे हैं।सरकारी उदासीनता का आलम यह है कि आज इन सूबों के इक्का-दूक्का गांवों में ही मृदा और पेयजल की गुणवत्ता की नियमित रुप से जांच हो पाती है और ना ही ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को ना संतुलित आहार नसीब होता है और ना ही शुद्ध पेयजल की आपूर्ति ही हो होती है।सतही तौर पर लगता है कि लोगों में आवश्यक जानकारी और जागरुकता का अभाव है ऐसे में जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य और सुरक्षा की खबरें रेडियो और टीवी चैनल द्वारा प्रसारित विज्ञापनों तक ही सीमित ना रहे बल्कि इसे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के माध्यम से अविकसित सुदूरवर्ती गांवों तक भी जमीनी स्तर पर पहुंचानी चाहिए।सिक्के के दूसरे पहलू पर थोडा विचार करें तो हम पाएंगे कि सरकारी उदासीनता के साथ-साथ कुपोषण की भयावहता के पीछे हमारी कुत्सित मानसिकता भी कसूरवार है।मैं यह नही कहता कि बच्चे पैदा मत कीजिए लेकिन अपनी आमदनी,हैसियत और प्रस्थिति के अनुसार बच्चे पैदा कर बेहतर परवरिश देने की कोशिश की जाए ना कि भोजन की अनुपलब्धता में बच्चों को सडक पर छोड दिया जाय।कुपोषण से मौत की खबरें देश के लिए शर्मनाक और कलंकित करने वाली है।लेकिन इससे मुक्ति का मार्ग भी हमे ही खोजना है।जब तक लोगों को जागरुक नहीं किया जाएगा सुधार की गुंजाइश नहीं दिखती है।सरकार भी अपने स्तर से सार्थक पहल करे और हम भी अपनी जिम्मेदारी समझें तो कुछ बात बने।यह बात भी दबे मन से स्वीकार करनी होगी कि भारतीय ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था का स्तर सुधरने की बजाय दिनोंदिन पिछडती जा रही है इसलिए सबसे पहले इसे दुरुस्त करने की जरूरत है।जरुरी यह है कि इसके खात्मे की दिशा में युद्ध स्तर पर काम हो।ताकि निर्दोष मासूमों की बलि किसी कीमत पर ना चढने पाऐ।
…
…
(सुधीर कुमार.
छात्र-बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
घर-राजाभीठा,गोड्डा,झारखंड
sudhi2jnv@gmail.com
Read Comments