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चिरप्रतिक्षित दक्षिण पश्चिमी मानसून ने केरल के समुद्री तट पर दस्तक दे दी है।9 जून को ही मानसून ने केरल और लक्षद्वीप को पूरी तरह से भींगो दिया।पिछले दो वर्षों से लुकाछिपी खेल रहा मानसून अगले कुछ दिनों तक देश के कुछ प्रदेशों को सराबोर करने वाला है।मानसून भले ही एक हफ्ते की देरी से आया हो,लेकिन उससे उम्मीदें काफी हैं।खास कर सूखे व पेयजल संकट से जूझ रही हमारी एक चौथाई आबादी के लिए यह राहत भरा होगा।खरीफ फसलों को बोने की तैयारी में लगे किसानों के लिए मानसून ने उम्मीदें बढ़ा दी हैं।अगर सब कुछ सकारात्मक रहा,तो मानसून की यह बौछार देश की अधिकांश जनसंख्या की झोली को खुशियों से भरने वाली हैं।लगभग एक माह पूर्व ही मौसम विभाग ने पूर्वानुमान के आधार पर सकारात्मक संदेश दिये थे।विभाग के अनुसार,इस वर्ष औसत से अधिक वर्षा की गुंजाइश है।उत्तर पश्चिमी भारत में मानसून की बारिश सामान्य के मुकाबले 108 फीसदी रहेगी।मध्य भारत में इस बार झमाझम बारिश होगी।मध्य और दक्षिण भारत में सामान्य से 113 फीसदी वर्षा होने का अनुमान है जबकि पूर्वोत्तर में इस बार यह वर्षा सामान्य के मुकाबले महज 94 फीसदी रहेगी।पर सवाल यह है कि क्या हम वर्षा द्वारा प्राप्त अतिरिक्त जल को संरक्षित कर पाएंगे?आमतौर पर हमारे देश में वर्षाजल का मात्र 35 फीसदी हिस्सा ही खेतों और जलस्रोतों में प्रवेश कर पाता है,जबकि 65 फीसदी हिस्सा बेप्रयोग समुद्र में प्रवेश कर जाता है।व्यर्थ हो रहे इस जल को हमें रोकना होगा।पर कैसे?नदियां,तलैया और तालाब गाद-मलबों से भरे पड़े हैं।दूसरी ओर,छत वर्षा जल संग्रहण के तरीके आज भी बहुसंख्यक आबादी की पहुंच से दूर हैं।नालियां गंदगी से बजबजा रहीं हैं,जो अत्यधिक वर्षा के बाद ढेरों समस्याओं को जन्म देंगी।वहीं,अत्यधिक वर्षा बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं को आमंत्रण देती है।क्या इससे निपटने की हमारी तैयारी पूरी है?
मानसूनी पवनें मूलतः मौसमी प्रवृत्ति के होते हैं।आद्रता से लबरेज ये पवनें हिन्द महासागर एवं अरब सागर की ओर से बहते हुए भारत के मुख्यतः दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिणी-पूर्वी तट पर घनघोर बारिश कराती हैं,फिर आगे की ओर बढ़ती जाती हैं।जून से सितंबर के बीच चार माह के मानसूनी वर्षा की प्रकृति कृषि को प्रभावित करती है।भारतीय कृषि पूरी तरह मानसून पर निर्भर है।आज भी भारत में 70 फीसदी बरसात मानसून से होती है और खेतों में पानी की आवश्यकता को भी यह पूरा करता है।मानसून पर अत्यधिक निर्भरता के कारण ही अक्सर कहा जाता है कि मानसून भारतीय कृषि के साथ जुआ खेलती है।जिस वर्ष मानसूनी वर्षा झमाझम हुई,उस वर्ष खेत फसलों से लहलहा उठते हैं,जबकि अनियमित मानसून देश में खाद्यान्न संकट उत्पन्न करता है।देश की 60 फीसद आबादी पूरी तरह से मानसून पर निर्भर है।पिछले दो बार से कमजोर मानसून ने भारतीय अर्थव्यवस्था को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है।उल्लेखनीय है कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 15 फीसदी से अधिक है।वर्तमान में देश के 33 करोड़ लोग सूखे की मार झेल रहे हैं।देश के करीबन एक दर्जन राज्य सूखे से क्षत-विक्षत हैं।इन राज्यों में औसतन 3 करोड़ से ज्यादा लोग सूखे का सामना कर रहे हैं।सूखा व पेयजल संकट से जूझ रहे इन प्रदेशों में प्रभावित जनसंख्या की श्रम उत्पादकता में गिरावट आने से भारतीय अर्थव्यवस्था को गहरा ठेस लगा है।
सूखा व पेयजल संकट के मद्देनजर देश में ठोस जल नीति की सख्त जरूरत है।इसके अभाव में प्रतिवर्ष जल का एक बड़ा हिस्सा व्यर्थ हो जाता है।शिक्षा के प्रचार-प्रसार में तेजी आने के बावजूद लोगों में जागरुकता की कमी देखी जा सकती है।जल संरक्षण के तमाम तरीके बस कागजों और विज्ञापनों तक ही सिमट कर रह गए हैं।हड़प्पा सभ्यता से ही देश में कुओं और तालाबों की खुदाई कर हमारे पूर्वजों ने जल संरक्षण पर ध्यान दिया है।लेकिन,तथाकथित औद्योगिक व आधुनिक होते वर्तमान समाज में संरक्षण के परंपरागत तरीके भूला दिये गये,जो जल-संकट के व्यापक होने के अहम् कारण हैं।आज जरुरत इस बात की है कि देश में प्राचीन तालाब संस्कृति को पुनर्जीवित किया जाय।तालाब,कुआं और तलैया वर्षा जल का संग्रहण कर भूजल स्तर को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।वर्षा ऋतु से पूर्व इसमें समाहित गाद-मलबों की अच्छी तरह सफाई की जानी चाहिए।हम जानते हैं कि देश में भूजल रिचार्ज का मुख्य स्रोत बारिश है।जब तक बारिश का पानी धरा पर ठहरेंगी नहीं,तो भविष्य में हम उसका प्रयोग कैसे कर पाएंगे?पिछले 69 वर्षों में भारत की सलाना प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में 74 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है।एक रिपोर्ट के मुताबिक 1947 में 6042 घनमीटर प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता थी,जो 2011 में 1545 घनमीटर तक जा पहुंचा है।इधर,जल संसाधनों पर संसदीय समिति की ताजा रिपोर्ट के अनुसार देश के नौ राज्यों-पंजाब,राजस्थान,उत्तर प्रदेश,तमिलनाडु,हरियाणा,तेलंगना,दिल्ली,कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भूजल की स्थिति गंभीर है।इन प्रदेशों में भूजल के अनियंत्रित दोहन से मौजूदा स्थिति जानलेवा होती जा रही है।वहीं,देश में जल संकट बद से बदतर और झगड़ा-झड़प होते हुए जानलेवा की स्थिति तक पहुंच चुका है।पिछले 7 सालों में भूजल स्तर 54 फीसदी तक गिर गया है।भूजल स्तर के घटने से ना सिर्फ कृषिगत व औद्योगिक उत्पादन प्रभावित हो रहा है,बल्कि यह कई पारिवारिक व सामाजिक समस्याओं का जन्मदाता भी है।कुछ दिनों पूर्व,झारखंड के रघुवर दास सरकार ने जल संरक्षण के लिए पूरे राज्य में 15 जून तक एक लाख डोभा बनाये जाने का एलान किया।इस अभियान के तहत राज्य में पूरे साल में पांच लाख डोभा बनाये जायेंगे।जबकि,2000 से ज्यादा तालाबों का जीर्णोद्धार भी किया जा रहा है।क्यूं न यह अभियान पूरे देश में चले?
इसके साथ ही,देश में नदियों को पुनर्जीवित करना होगा।केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट की मानें,तो देश की 445 नदियों में से 275 नदियां अभी प्रदूषित हैं।कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से असम तक देश के हर कोने में नदियां प्रदूषण के बोझ से दबी जा रही हैं।इनकी साफ-सफाई के लिए सरकार व जनता को आगे आना होगा।केन और बेतवा नदियों को जोड़कर देश में नदी जोड़ों परियोजना की शुरुआत की गई है,जिसे क्रमशः आगे बढ़ाने की जरुरत है।जलस्रोतों की नियमित साफ-सफाई होनी चाहिए।अत्यधिक गाद-मलबों के कारण नदी,डैम,नहर व तालाब आदि की जल धारण क्षमता कम हो होती है।अत्यधिक वर्षा के समय इसमें जल धारण की क्षमता नहीं रहतीं और बाढ़ के फैलाव का यह प्रमुख कारण बन जाती हैं।गंदगी से बजबजाती नालियों में वर्षा जल मिलने के बाद पूरा शहर बेरंग व दूषित हो जाता है।जल संचयन तथा जल संवर्धन के लिए तकनीकी प्रणालियों की मदद ली जा सकती है।खेती में स्प्रिंकलर व ड्रिप सिस्टम का प्रयोग किया जा सकता है।इसके प्रयोग से बेतरतीब पटवन पर रोक लगेगी और पौधे या फसल को उचित जल भी मिल सकेगा।जबकि,दैनिक जीवन में जल संसाधन के प्रति हमारा ममतापूर्ण व्यवहार जल को संरक्षित करने में मदद कर सकता है।
अब जबकि,अत्यधिक वर्षा के आसार हैं,तो हमें दो चीजें अवश्य करनी होगी।एक तो,जलस्रोतों की सफाई और दूसरा,छत वर्षा जल संरक्षण।वर्षा जल संग्रहण विभिन्न उपयोगों के लिए वर्षा के जल को रोकने और एकत्र करने की विधि है।इसका उपयोग भूमिगत जलभृतों के पुनर्भरण के लिए भी किया जाता है।इसके माध्यम से पानी की प्रत्येक बूंद संरक्षित करने के लिए वर्षा जल को नलकूपों,गड्ढों व कुओं में एकत्रित किया जाता है।यह ना सिर्फ भूमिगत जल स्तर को नीचा होने से रोकता है,बल्कि मृदा अपरदन को रोकने तथा जल में उपस्थित फ्लोराइड और नाइट्रेट जैसे संदूषकों को कम करने के साथ ही जल के अन्य स्रोतों पर हमारी निर्भरता कम करती हैं।आइए,सुखमय जीवन की ओर एक सार्थक कदम उठाएं।
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लेखक
सुधीर कुमार
संपर्क
sudhir2jnv@yahoo.com
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