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एड्स के मकडजाल में खत्म होती श्रमशक्ति
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देश-दुनिया में एड्स पीडितों के आंकडे इसकी भयावहता की ओर इशारा करते हैं।आज भारत एड्स के मामले में विश्व का तीसरा सबसे बडा देश बन गया है,जो इस विकासशील राष्ट्र के लिए चिंता का विषय है।एड्स एक जानलेवा बीमारी तो है।साथ ही जान जाने से पूर्व यह भुक्तभोगी को सामाजिक और आर्थिक रुप से कमजोर भी करता है।एक तरफ व्यक्ति समाज के लोगों द्वारा होने वाले भेदभाव तथा छुआछूत के भय से उचित समय पर अपनी बीमारी को प्रकट कर उपयुक्त ईलाज से वंचित हो जाता है तो दूसरी तरफ नौकरीपेशा की चाह में शहरों की ओर प्रस्थान किया व्यक्ति बीमारी की वजह से उत्पन्न डर और कमजोरी से अपनी कार्यकुशलता खो बैठता है।अवैध यौन संबंध की एक नादानी,जागरूकता का अभाव तथा आवश्यक पैसे के अभाव में इलाज की ओर बेरुखी से बडी संख्या में कामकाजी लोगों में श्रमशक्ति का अभाव हो रहा है,जिससे उत्पादन प्रक्रिया में शामिल लोग अपनी क्षमतानुसार योगदान नहीं दे पाते हैं और अंततोगत्वा नुकसान राष्ट्र का होता है।इसलिए पीडितों द्वारा बीमारी को छुपाना नहीं तत्काल जाहिर करना जरुरी है ताकि समय रहते उसका उचित उपचार किया जा सके।हमारा आज का समाज इतना भी रुढ नहीं है कि पीडितों द्वारा अपनी बीमारी जाहिर करने पर उनसे भेदभाव या छुआछूत किया जाएगा।पीडितों के मन में बैठा यह डर कई जिंदगियां लील रहा है।सरकारी प्रयासों से आज जिलास्तरीय अस्पतालों में एड्स के साथ-साथ टीबी,मधुमेह जैसे जानलेवा बीमारियों का इलाज निःशुल्क या थोडे खर्च से संभव है।वहां जाकर इलाज कराने से स्वस्थ होने की संभावनाएं बढ जाती हैं।दवा-दारु तो अंतिम उपाय है किंतु एड्स से बचने का एकमात्र रास्ता जागरुकता ही है।यह भी गौर करने लायक है कि एड्स पीडितों में ज्यादातर हिस्सा गांवों से शहरों की ओर पलायन करने वाले दिहाडी मजदूरों तथा झुग्गी बस्तियों में निवास करने वाले लोगों का है।अगर इन्हें जागरुक करने के प्रयास किए जाते हैं तो एड्स रोगियों में काफी कमी दर्ज की जा सकती है।ग्राम स्तर से यह प्रयास हो तो स्थिति और अधिक नियंत्रण में होगी।जरुरत सार्थक प्रयास करने की है।
▪सुधीर कुमार
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