divya jyoti mithila
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हिमालय भी पिघल रहा है
दूषित कोख, प्यासा पानी
यहाँ करेला, बना है दानी
देखो सब बदल रहा है
बहते नदी में कूड़ा है
हर तन यहाँ तो बुरा है
जहा कापता
जिगर रहा है
फिर से मेरा,
बात बदलना
मतलब से,
खुद को ढ्लना
समाज यहाँ तो विगर रहा है
सीमा, और अन्दर
में घेरा
सब लड़ते, कह
कर मेरा
अंजान मोत बस
सफर रहा है
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