divya jyoti mithila
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जिंदगी व्यंग और उपहास्य है,
सांसो मे उलझा सब के पास है,
जिधर देखो तकरीफ़ और टकरार
विजय के कड़ी मे सिमटा है, सार
कही दल दल सा कही खास है,
कोने मे इसके उसके झुझलाता
थोड़ा बहुत ए सुलझाता
करता रोज य अभ्यास है,
उम्र के शाया मे बेआसरा होकर
बना हुआ है, खुद का खुद जोकर
ए महफिल का दराख है,
खुद को ढूढ़ता ए चला आया
खोये अश्क पे ए मुस्कुराया
ए जीता और जीने के बाद लाश है,
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