divya jyoti mithila
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हर रोज मे
जलता हु!
उलझन के गर्मी से
पिघलता हु!
नये सबेरा मे
बात पुरानी है!
जीवन अपना एक,
कई कहानी है!
सूरज के तरह
मे ढालता हु!
अपने आग
के उजाले
उधेर रही है
ए खाले
नया खाल
पहनता हु!
आये-आये यहा तक
आये
पल पल गम
हमे बुलाये
थम के सत्य से
बहलता हु!
आगे रथ पे बेठा था
भूल के खुद को
लेटा था
नींद खुला तो
हाथ मलता हु!
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