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कुछ अनोखी है ‘सावधान पुलिस मंच पर है’

सुमित के तड़के - SUMIT KE TADKE
सुमित के तड़के - SUMIT KE TADKE
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सुमित की शुरू से खासियत रही है कि वो हमारे आसपास हो रहे घटनाक्रम को अलग नजरिए से देखते व परखते हैं और फिर उसे कविता, कहानी अथवा व्यंग्य के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। ‘सावधान पुलिस मंच पर है’ में भी उन्होंने कुछ ऐसा ही करने का प्रयास किया है, जिसमें वो काफी हद तक सफल भी हुए हैं। कहीं उन्होंने गंभीर विषय को चुटीले अंदाज में कहकर एक तरफ तो उस पर कटाक्ष करते हैं तो दूसरी तरफ पाठक को उस विषय पर सोचने को लिए विवश करते हैं। इस काव्य संग्रह की भाषाशैली भी ऐसी है, जो पाठकों को अपने साथ जोड़े रखने में मदद करती है, साथ ही उनकी कविताओं का मर्म को समझने में दिमाग के घोड़े नहीं दौड़ाने पड़ते। अगर युवाओं की बात करें तो यह कहना गलत नहीं होगा कि उनका साहित्य खासकर हिंदी कविताओं से मोह भंग हो रहा है, लेकिन सुमित ‘सावधान पुलिस मंच पर है’ के जरिए युवाओं को एक बार फिर से इससे जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। अब इस जरा इस कविता पर गौर कीजिए –तू लड़की झकास, अपुन लड़का बिंदास,तेरी आंखें कुछ खास, अपुन हो गया खल्लास।
बड़ी मस्त तेरी बोली, तुझे देख नीयत डोली,मेरे दिल की खाली खोली, आ खेलें प्यार की होली।
तू पाव अपुन वड़ा, तेरे वेट में कबसे खड़ा,तेरे वास्ते सबसे लड़ा, तुझ बिन लाइफ बिल्कुल सड़ा।
अब इस भाषा शैली को आप क्या कहेंगे। बेशक इस कविता में जो वाक्य विन्यास है और जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है, संभवत: वो हिंदी साहित्य के मानकों पर इतर हो, लेकिन यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इससे युवा वर्ग जरूर आकर्षित होगा और कविता पढ़ने पर मजबूर होगा। इसे पढ़कर वह यही सोचेगा कि अरे ये तो मेरे ही शब्द और भावनाएं हैं और अगर रचाकार ऐसा करने में सफल होता है तो यह न सिर्फ उसकी, अपितु हिंदी साहित्य जगत की जीत होगी। अगर युवा पीढ़ी इस माध्यम से एक बार फिर हिंदी कविता व कहानियों की ओर आकर्षित होती है तो उसमें हर्ज ही क्या है। बड़े बुजुर्ग कहते भी हैं कि अगर हाजमा खराब हो तो कुछ हल्का-फुल्का आजमाना चाहिए। सुमित इस कॉम्बो पैकेज में यही करने का प्रयास कर रहे हैं। इस तरह के प्रयोग कई वरिष्ठ लेखक भी कर चुके हैं और वो उसमें सफल भी रहे हैं।
इस काव्य संग्रह से प्रभावित होने के और भी कई कारण रहे हैं। उनमें से एक यह है कि सुमित ने इस समाज में खत्म होती जा रही संवेदना को झकझोरने का प्रयास किया है। उसकी एक बानगी ‘अच्छा है बकरापन’ कविता में झलकती है। इस कविता की निम्न पंक्तियों पर ध्यान दें : –
अबे ओ गुच्चन!
तूने बना डाला मुझे रंडवा,मेरे सामने ही बेचा
मेरी बकरी रानी का एक-एक खंडवा,आ आ मुझे काट,जितने चाहे टुकड़ों में ले बांट,तभी पड़ोस के फ़ज़लू ने आकर बताया,इलाके में हो गया है दंगा,सेना ने कस लिया शिंकजा,मुसलमानों ने मंदिरों में और
हिंदुओं ने मस्जिदों में लगा दी है आग,यह सुन गुच्चन की दुष्ट आत्मा गई जाग,उसने अपने बचपन के यार,सूरज पंडित को जाकर दो भागों में बांट दिया,सूरज के बेटे ने आकर,गुच्चन को बीच से काट दिया।


अब मुझे दुख नहीं कि मैं बकरा पैदा हुआ,हम इन इंसानों से अच्छे हैं,इनसे कई गुना सच्चे हैं,कभी कोई बकरा या मुर्गा,किसी दूसरे बकरे या मुर्गे को
काटता, लूटता या जलाता नहीं,आज मुझे हुआ यह अहसास है,मुझे अपने बकरेपन पर नाज है।
सुमित ने इस कविता के जरिए खंड-खंड होते सामाजिक मुद्दों को इतनी सहजता व सरलता से उठाया है कि हमें सोचने पर विवश हो जाते हैं हम किस तरह की दुनिया का निर्माण कर रहे हैं और आने वाली पीढ़ी को विरासत में क्या देकर जाने वाले हैं। इस कविता ने मेरे वजूद पर सवाल खड़ा कर दिया तथा साथ ही साथ सामाजिक मूल्यों को समझने की एक नई शक्ति दी। इतना ही यह उन लोगों के गाल पर करारा तमाचा है जो कहने को तो इंसान हैं, लेकिन व्यवहार के मामले में बकरापन उनसे कहीं बेहतर है। यहां मैं ये जरूर कहना चाहूंगा कि अगर हम सभी इंसानीयत न सही बकरेपन पर ही उतर आए तो शायद एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकें।
एक और कविता का जिक्र करने से खुद को नहीं रोक पा रही हूं। ‘आओ जलाएं रावणपन’ नामक कविता मुझे इसलिए भी प्रिय है, क्योंकि हम कभी अपने अंदर की मैल व बुराइयों को उजागर नहीं होने देते और फिर धीरे-धीरे वो हम पर इतना हावी हो जाती है कि हम उसके हाथों कठपुतली बन जाते हैं।
जरा निम्न पंक्तियों पर गौर करें : –
हमने एक सेठजी से पूछा
राम ने रावण को क्यों मारा?लालाजी कुछ कहिए,सेठजी इतराकर बोले- रावण था बड़ा घमंडी,इसलिए राम से मारा गया पाखंडी।
इतना कहकर सेठजी ने
अपने बगल में खड़े
फटेहाल मानव को घूरा और
अपने शाही कपड़ों पर इतराते हुए
भीड़ में गुम हो गए।
अब इन पंक्तियों पर ध्यान दें : –
अबकी बार हमने मुल्ला जी से पूछा,जनाब राम ने रावण को हलाक क्यों किया?मुल्लाजी अपना पान से भरा
मुंह खाली करते हुए बोले
हुजूर जहां तक हमने
अपने हिंदू दोस्तों से सुना है कि
रावण था बड़ा लालची और
करता था लंका पर राज
जनाब राम ने उसे मारकर ठीक किया।
यह कहते-कहते मुल्लाजी की नजर
अपने पैर के बगल में पड़े
एक रुपये के सिक्के पर पड़ गई
वहीं मुल्ला जी की नीयत बिगड़ गई,जूता का फीता बांधने के बहाने नीचे झुके
और रुपया उठाने के बाद
वहां एक पल भी नहीं रुके।

सुमित की लेखनी उसी प्रकार है, जो हमारा मनोरंजन तो करती है, साथ ही उस पथ प्रदर्शक की तरह भी है, जो राह भटक चुके दृष्टिहीन का हाथ पकड़ पथ प्रदर्शन करती है। साथ ही मुझे यह कहने में भी बिलकुल हिचक महसूस नहीं हो रही कि यह तो सुमित के लिए प्रारंभ भर है। अभी तो उन्हें लंबा सफर तय करना है। साथ ही हिंदी व्यंग्य का स्तर इतना ऊंचा करना है कि वो आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल कायम कर सके।


लेखक- सुमित प्रताप सिंह
प्रकाशक- हिन्दी साहित्य निकेतन, बिजनौर, उ.प्र.
पृष्ठ – 104 मूल्य – 200 रुपये

समीक्षक : दीपा जोशी, रोहिणी, दिल्ली।

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