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कविता : बकरे का इंतज़ार

सुमित के तड़के - SUMIT KE TADKE
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बकरे की माँ ने
खैर मनाना
कुछ रोज पहले ही
कर दिया है बंद
न ही बकरा
अब मिमियाता है
न ही दिखाता है
वो किसी को
अपने भीतर का डर
हर ग्राहक उसके माँस को
और उसकी मजबूत हड्डियों को
अपने-अपने तरीके से
दबाकर, भींचकर या
हिलाकर परखता है
बाज़ार में कुछ पत्तियाँ खा
और बूँद-बूँद पानी पी
किसी तरह जीवित बकरा
तेज छुरे को गुमसुम हो
अक्सर निहारते हुए
अब नहीं करता
इन कष्टों की परवाह
क्योंकि उसे पता है कि
उसके ये कष्ट जल्द ही
पूरी तरह मिटनेवाले हैं
क्योंकि ईद का पाक दिन
अब जल्द ही आनेवाला है।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह
sumitpratapsingh.com

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