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कविता : वो बच्ची

सुमित के तड़के - SUMIT KE TADKE
सुमित के तड़के - SUMIT KE TADKE
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बच्चे को अपनी गोद में 
टाँगे लग रही थी अनमनी सी
बच्चे को उसकी माँ द्वारा
खरीदकर दिए जा रहे
खिलौने, आइस क्रीम, टॉफियाँ
नहीं ला पा रहे थे
उसके बाल मन में
थोड़ा सा भी आकर्षण
न ही बाजार की चकाचौंध
जगा पा रही थी
उसके रोम-रोम में उत्सुकता
उसका मन तो अटका था
अपने मालिक की
शानदार हवेली की
उस बड़ी सी रसोई में
जहाँ बर्तन धोने की सिंक में
छोड़ आयी थी
ढेर सारे झूठे बर्तन
दोपहर की आधे घंटे की
नींद ले शरीर की थकावट को
मारने का यत्न करने के कारण
हो गया था उससे
बहुत बड़ा ये अपराध
अचानक उसके रोंये
होने लगे थे खड़े और
बाज़ार में मुस्कुराती हुई मालकिन
दिखने लगी थी उसे
एक खूंखार डायन
जो घर जाते ही
उसके बड़े अपराध की सज़ा
अपने डंडे से
उसका शरीर लहूलुहान
करके ही देती
अचानक दिखाई दिया
उस बच्ची के भीतर का
बचपन बेमौत मरते हुए
और अब वो बच्ची
बचपन की चिता जला
विवशता के वस्त्रों से लिपटी हुई
एक स्त्री बन चुकी थी।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह
sumitpratapsingh.com

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