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व्यंग्य : कलियुग का तीर्थ

सुमित के तड़के - SUMIT KE TADKE
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तीर्थयात्रा आरम्भ हो चुकी है। सभी तीर्थयात्री अपना लोटा-बाल्टी और सामान-सट्टा लेकर तीर्थयात्रा को निकल चुके हैं। अन्य पारंपरिक तीर्थों से इतर यह तीर्थ कलियुग में विशेष स्थान रखता है। सत्ता को पाने के लिए सत्ताप्रेमी माननीय महोदयों के लिए यह दंडवत होने के लिए अतिप्रिय स्थल है। हम जैसे कमअक्ल प्राणी भूलवश अथवा अज्ञानता से इसे झोपड़पट्टी अथवा स्लम एरिया के नाम से बदनाम करते रहते हैं, जबकि कलियुग का सबसे पसंदीदा तीर्थस्थान फ़िलवक़्त तो यही है। बहरहाल आरम्भ हो चुकी इस तीर्थयात्रा के पूर्ण होने की सभी कुर्सी रुपी मछली की आँख पर अर्जुन की भांति धनुष पर बाण से निशाना लगाए हुए भले मानुष कामना कर रहे हैंकि काश ये तीर्थ यात्रा सफल हो जाये और उनकी नैया पार हो जाए। पारंपरिक तीर्थ यात्रा से बिलकुल हटकर है ये तीर्थ यात्रा। असल में ये कलियुगी तीर्थयात्रा है। ये तीर्थयात्रियों के घर अथवा दफ्तर से आरम्भ होकर कलियुगी तीर्थस्थान पर जाकर ही समाप्त होती है। इस तीर्थयात्रा में शामिल होनेवाले तीर्थयात्रियों के हृदय में पारंपरिक तीर्थयात्रियों जैसा ही तीर्थस्थान के प्रति श्रद्धा भाव होता है और उसमें अनेकों सपने पलते हुए जवान होने की राह तक रहे होते हैं। अन्य तीर्थयात्राओं की तरह ये तीर्थयात्रा हर वर्ष या किसी निश्चित समय पर नहीं होती। ये तो हर पाँच साल में एक बार देश के विभिन्न स्थानों में आयोजित की जाती है। हाँ यदि कुछ गड़बड़ हो जाए तो ये जल्दी-जल्दी भी आयोजित होती रहती है। इस तीर्थ यात्रा में जो भी यात्री तीर्थस्थान और वहाँ निवास करनेवाले प्राणियों को अधिक से अधिक चढ़ावा चढ़ाएगा और अधिकाधिक सेवा भाव प्रदर्शित करेगा कृपा उसी को प्राप्त हो पाएगी। हर तीर्थयात्री तीर्थस्थान में स्वयं को अन्य तीर्थयात्रियों से अधिक भक्त सिद्ध करने का प्रयास करेगा। देश में मौजूद अन्य तीर्थों को बेशक आँच आए अथवा उन्हें इस धरा में विलीन कर दिया जाए, लेकिन कलियुगी तीर्थ का कोई बाल-बाँका भी नहीं कर सकता। भक्तजन अपनी जान की परवाह किये बिना इस तीर्थ को बचाने की खातिर बुलडोजर के आगे तक लोटने को तत्पर रहते हैं। अब ये और बात है कि अपनी जान की सबसे अधिक परवाह इन्हें ही होती है। इनके लाख चाहने के बावजूद प्रकृति इनके तीर्थस्थानों पर विपदा भेजती रहती है। कभी-कभी भक्तजन भी प्रकृति का नाम लगाकर स्वयं भी विपदा उत्पन्न करते रहते हैं। इस बहाने उन्हें तीर्थयात्रा का अवसर प्राप्त हो जाता है। हालाँकि कलियुगी तीर्थ के वासियों को वंचित कहा जाता है, किन्तु इन वंचितों के चरण चाटनेवालों की संख्या को देखकर अक्सर मन में प्रश्न उछल-कूद मचाने लगता है कि वंचित कलियुगी तीर्थ के वासी हैं या फिर ये तीर्थयात्रीकुछ समय के लिए ही सही किन्तु तीर्थवासी वंचित से संचित और तीर्थयात्री संचित से वंचित की श्रेणी में परिवर्तित हो जाते हैं। यह अल्पकाल तीर्थ के निवासियों के लिए खुशनुमा होता है और एक अलग ही अनुभूति से भरा हुआ होता है। इस छोटे से काल में उनके इर्द-गिर्द दुःखपीड़ा, अभाव एवं परेशानी जैसे कलियुगी गुण फटकने से भी हिचकते हैं। उनकी सारी कठिनाईयों एवं दिक्कतों को तीर्थयात्री अपने सिर-माथे पर ले लेते हैं। और फिर एक दिन ऐसा आता है जब तीर्थयात्री तीर्थ के निवासियों के पास संचित वोट नामक धन हथियाकर चंपत हो जाते हैं। इस प्रका तीर्थ के निवासी अचानक संचित से वंचित में परिवर्तित हो जाते हैं और लुटी-पिटी अवस्था में फिर से वंचित से संचित होने की प्रतीक्षा करते हुए आगामी अच्छे दिनों के दिवास्वप्न में खो जाते हैं।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

चित्र गूगल से साभार

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