बाजार में घूमने निकले तो सामने से महावत कल्लू मियाँ दिखाई दिए. शहर के बाज़ारों में हमेशा अपने हाथी पर अकड़ से बैठकर चलने वाले कल्लू मियाँ का इस प्रकार पैदल चलना अजीब ही लगा उनके साथ कपड़े की एक इमारत भी चल रही थी. गौर से देखा तो जाना, अरे यह तो उनका हाथी था, जिसे कल्लू मियाँ ने बुरका पहना दिया था. दुआ सलाम करके उनसे उनके इस व्यवहार का कारण जानना चाहा, तो कल्लू मियाँ अपने मुँह चबा रहे पान को लील कर दुखी हो बोले, “अमाँ क्या बताएँ? चुनाव क्या आने वाले हैं, हमारी तो आफत ही हो गई है. चुनाव आयोग के चौधरियों ने जाने क्या फरमान निकाला है, कि दरोगा साब ने हुकुम सुनाया है कि अपने हाथी को ढककर रखो और अगर हाथी पर बैठे मिल गए तो खैर नहीं.” हमने उन पर फिर सवाल दाग दिया, “फिर तो कल्लू मियाँ बहुत दिक्कत हो रही होगी आपको?” कल्लू मियाँ ने कराह कर बोलना शुरू कर दिया, “क्या बताये मियाँ अपनी बेगम के जाने कितने बुरके कुर्बान कर दिए हाथी के बुरके बनाने की खातिर. और तो और अब तो हमें यूँ पैदल चप्पल चटकाते देखकर साले खब्बीस लोग भी दाँत दिखाने से बाज नहीं आते हैं. खुदा कसम पूछिए मत कैसे घुट- घुट कर जी रहे है आजकल.” हमने उन्हें सांत्वना देते हुए शिकायती लहजे में कहा, “बड़ी नाइंसाफी है यह तो! हाथी को ढकने के लिए ही चुनाव आयोग क्यों पीछे पड़ा है? हाथ,कमल,साइकिल और हैंडपंप भी तो हैं. क्या उनकी भी कोई खैर खबर ले रहा है?” कल्लू मियाँ हँसते हुए बोले, “मियाँ आप क्या जानें कि चुनाव आयोग के चौधरियों का कितना खौफ है? हाथ डर से लोगों की पैंट की जेब में ही चिपके रहते है, कमलों ने मुरझाकर दूसरा रूप धर लिया है, खौफ से टायरों की हवा निकलने से बेचारी साइकिलें बेजान हो गईं हैं और हैण्डपंपों की तो पूछो मत. बेचारे डर के मारे आजकल खारा पानी निकालने लगे हैं.” इतना कह और सलाम मारकर कल्लू मियाँ आगे बढ़ गए. चलते-चलते वह दुखी हो गा रहे थे “चढ़ न जाना हाथी पर/ सोटा पड़ेगा छाती पर.”
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