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वह बार – बार अन्दर से बाहर आती ,
िचन्ता की लकीरें थीं साफ नजर आतीं ।
भय का भी साफ- साफ चेहरे पर साया था,
काऱण इकलौता बेटा घर नही आया था ।
जाते वक्त उसने कारण बताया था ,
रोटी की मजबूरी का हाल समझाया था ।
मां का िदल िफर भी नही माना था,
मजबूरी थी पेट के िलए शहर उसे जाना था ।
मां ने रोका आज मत जा, यह मेरे
िदल की बोली है ,
िफर चले जाना क्योंिक आज होली है ।
देर शाम जब बन्धु होने को आई ,
तभी कोई सड़क पर पड़ा आता िदखलाई ।
कोई भी उसे पहचान नही पाया ।
कपड़े लाल और कीचड़ से नहाया.।
दूर से िचल्लाया अम्मा लौट आया ।
कपड़े रंग लाल और कीचड़ भरी झोली
सच बता बेटा क्या खेली है होली ।
हां मां मौके का फायदा उठाया,
िदल खुश है सच्ची होली मनाया ।
िकस्सा सच हूं तुझको सुनाता,
कीचड़ रंग लाल का कारण बताता ।
थी तेज चाल मेरी और सूरज चढ़ा था,
सड़क के िकनारे वह बूढ़ा पड़ा था ।
उसको उठाया कतर्व्य भाव जागा,
मां मैं सीधे अस्पताल भागा ।
ईश्वर से प्राथर्ना काम मेरी कर गई,
तभी तो उस बूढ़े की जान मां बच गई ।
झूठ नही बोलता, सत्य यही हाल हैं,
उसके ही खून से कपड़े मेरे लाल हैं ।
ईश्वर की कृपा से भरती सदा झोली है,
मैंने तो खेली मां आज असली होली है ।
– सुनील बाजपेयी
२.
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