तुम कहते हो कि औरत पांव की जूती होती है तो सुनो l हे पुरुष ! …………………. औरत तुम्हारे पांव की जूती ही सही मगर हे पुरुष ! तुम्हे क्या ये पता है ? कि कभी कभी जूती काटती भी है और अगर काट लिया तो पांव जख्मी भी होगा और अगर जख्मी होगा तो लंगड़ाओगे भी तुम्हारी इस लंगडाहट को सभी देखेंगे देखने वालों में कुछ वो लोग भी होंगे जिनके सामने तुम औरत को पांव की जूती कहकर शेखी बघार रहे थे उस समय औरत की विजयी मुस्कराहट देखने को नदी, झील, झरने, हवाएं, रागिनी सब थम जाएंगे लेकिन तुमने कभी सोचा है कि तुम्हारे जूती जूती कहने से नारी ह्रदय को गहरा आघात लगता है फिर भी ये औरत तुम्हे पूजती है हे पुरुष ! औरत के होने में ही तुम्हारा वजूद है कभी मन विवश हो सोचता है औरत होने पर और कभी गुरुर होता है कि औरत ही जीवन के रंगमंच की कसौटी पर खरी उतरती है पर व्यथित नही होती औरत के मन में चलते अंतर्द्वंद कहते हैं कि हे पुरुष ! तुमने मुझे त्याग तो दिया लेकिन अब मर्मस्पर्शी ह्रदय में सिर्फ शेष रह गई है रुई के नर्म रेशों सी, आँखों की एक कोर से दूसरे कोर तक फैले नीले समुद्र की अनंत गहराई लिए हुए कुछ मोतियों का अपरिभाषित, अनाम रंग की अधूरी तस्वीर, जिसने कभी मुझमे डूबकर सिर तक निकाला था मुझे, गहरी नदी के पेट से न जाने कितनी बार संभाला था मुझे और मैं भी ब्रह्माण्ड में तिरती, स्वयं में तुमको ढूढती तुम्हारे मन में खुद को पा लेने की मेरी अपरिमित इच्छा तुम्हे पाकर तुममे विलीन होने की घोर आकांक्षा निश दिन एक ही सवाल करती आँखें कि हे पुरुष ! कब तुम औरत को सही मायने में उसकी जगह रोप कर अपनी अर्धागिनी मानोगे सिर्फ पैर की जूती नही….. सिर्फ पैर की जूती नही….. सुनीता दोहरे प्रबंध सम्पादक
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