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अश्कों भीगी दिल्ली और दस्तरखान सिमट गए

sach ka aaina
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अश्कों भीगी दिल्ली और दस्तरखान सिमट गए….

“सुनी” दिल्ली गई हुई थी जून का तपता महीना था लेकिन शाम होते ही ठंडी हवा के झोकों ने सुनी को ऊपर बालकनी में जाने के लिए विवश कर दिया l वो बडी देर तक कुर्सी पर बैठी मुसाफिरों को सडक पर आते जाते न जाने क्यूँ देखती रही। क्या तलाश रही थी सुनी l कुछ समझ नहीं आ रहा था जैसे उसके दिमाग से सब कुछ पुछ सा गया था । कौन सा घर, कौन सा शहर और कौन सा पता जहाँ उसे जाना था ? उसकी खाली नजरे ना जाने क्या तलाश रहीं थी l सुनी के लिए कोई नया शहर नहीं था l लेकिन सब कुछ बदला बदला सा लग रहा था l अचानक कुछ लिखने की सूझी l जैसे सारे सवालों को सुनी यही उतार कर मुक्त होना चाहती हो एक रंग, जो मौसम बदलने से पहले हवा में फैलने लगता है, कुछ वैसी ही कैफियत से सुनी के ख्याल कागज पर मोतियों की तरह बिखरने लगे थे l

“सुनी” के लिए दिल्ली फिर से सवालों का उलझा शहर बन गई थी और आज के इस आधुनिक युग में वही भव्यता का सदियों पुराना शास्त्र ले कर दिल्ली फिर से अभ्यावेदनों की दुनिया से मरहूम होकर जवां दिल्ली अब खिलाफत के नए शब्द सीख रही है जिसमें भ्रष्टाचार एक अहम पहलू है, जो आज के जवां मौसम में पूरे भारत को अपनी चपेट में लिए हुये है l भ्रष्टाचार से लवरेज नेता गरीबों के पसीने से नहाते हैं और उनकी आँहों को संगीत समझकर उनकी मेहनत की कमाई के तले फल-फूल  रहे है l सत्याग्रह, बहिष्कार, असहयोग और सविनय अविज्ञा अपने और बेगाने के भिन्न-भिन्न प्रतीक लोगों को संगठित करने के नए तरीके  मानो गरीब और अमीर  के बीच की खाई को भरने के लिए बनाए जा रहे हों कई बेनाम पुल और बताया जा रहा हो लगातार कि, इन्हें पार करके ही तुम पाओगे श्वेत, शुभ्र लिबास में लिपटी अन्नत दौलत l ठीक यही नजारा उन दिनों था जब क्रांतिकारियों ने देश को आजाद करने की मुहिम शुरू की थी l जनता के उल्लास से बार बार उठते कई हुजूम थे l सड़कों पर हर रोज सुबह, दोपहर, शाम सभी उजले उजले गांधी टोपियों और खादी के कुर्तों और सूती साडि़यों की तरह अपने मन की उमंग और तरंग में हवाओं से फड़फड़ाते हुये ऐसे लगते थे l मानो दुनियां की सारी जंग जीत ली हो  ये धूर्त ना जाने क्यों हर बार यह भूल जाते हैं कि सेंट्रल असेंबली के बम के पीछे गांधी टोपियां और खादी के कुर्तों के कपड़ों की नहीं बल्कि, बेबस और लाचार परिंदे भी थे जिनमें बिना कपड़ों के असहाय बेबस मजदूरों की बेशुमार और ह्र्दय विदारक चीखें शामिल थीं l दिल्ली में बिना दरारों के पुल और बिना गढ्ढ़ों की लरजती सी सड़कें उन दिनों कभी नहीं दिखाई दी थी आजाद मुल्क की राजधानी दिल्ली में आजादी की पहली सुबह की पौ फटते ही जिन एहसासों के साथ खुशनुमा सुबह को आना चाहिए था वैसी नहीं आई l कुछ तो आदमी हमेशा से अपनी किस्मत को दोष देता रहा है कुछ विभेदों के पूरी तरह मिटने की आशा भी संशकित और सहमी सी थी l  खुशी के दिन भी कुछ काले बादल में तब्दील हो गये एक बहुत बड़ा हिस्सा जो अपना था वह अपना न रहा दस्तरखान सिमट गए, रोटियाँ टुकड़ों में बंट गईं l लिजलिजी बरसात की उस टूटी फूटी धूप में जहाँ चौपाल लगते थे वो सूने हो गए l कुछ दुखयारों से इलाके ही नहीं, पूरी की पूरी दिल्ली छूट गई अपने आँचल में लपेट कर मिट्टी की गंध तो ले गए, पर मिट्टी धरी रह गई, चीत्कार करती रही मानवता दिल्ली फिर से सवालों का उलझा शहर बन गयी …….

कई सवालात जहन में गोते खाने लगे l ये सवालात आज भी मेरे दिल को व्यथित करते रहते हैं पर कोई जवाब नही मिलता है l  जहन बार-बार इन मुश्किल सवालातों से रूबरू होता है…..जैसे ..

महात्मा गांधी हमारे ( राष्ट्रपिता ) हे राम बोल कर क्यों मरे ?
वह कौन सा हिंदू था क्या धर्म था उसका जिसने उन्हें मार डाला ?
दंगाइयों की दहशत भी अगर दिल्ली के उन्हीं गलियारों को रक्त से भिगो चुकी थी
तो वह कत्ल हुए बाशिंदों से अधिक मजहबी कैसे हो गया ?
पाकिस्तान का इबादतखाना जहां नमाज पढकर खुदा को याद करते हैं क्या वो दिल्ली की
जामा मस्जिद और दरगाहों से अधिक पुख्ता था ?
लाहौर में काले कबूतर दिल्ली के सफेद कबूतरों से ज्यादा करतबी कब से हो गए ?  क्योंकि
सफेद कबूतर तो शांति का प्रतीक होते हैं
शरणार्थिंयों के कैंपों की जिल्लत और रंज से आहत हुई दिल्ली, क्या सचमुच कुछ कट्टर और

बेरहम हो गई है ?
क्या हमारे भारत से अंग्रेजी हुकूमत सचमुच चली गई ? अगर नहीं तो फिर दिल्ली और
समूचे भारत में जनता के साथ अन्याय क्यों ?
ये भ्रष्टाचार क्यों ?
एक आम आदमी त्रस्त क्यों ?
ऐसे कई सवाल थे जिनसे दिल्ली हमेशा से आक्रांत रही है लाल किले पर तिरंगा साल दर साल फहरता रहा है l प्रधानमंत्री छाँव में सैलूट करते रहे हैं और जनता धूप में तपती रही हैl
पटेल नगर, करोल बाग और पंजाबी बाग की बड़ी और शानदार कोठियों में शरणार्थियों ने एक अनूठे और अमिट जीवट का अध्याय भी लिखा l कालेजों में दुनिया को एक नयी दिशा में बदलने की हवा बड़े जोर शोर से चली l काफी हाउस में नए फलसफे,  नई उमंग और नई कहानियों के बीच कॉफी से भरे प्यालों की खुश्बू और चुस्कियों के बीच ढेर सारी सिगरेटों के टुकडों को रेत भरे प्यालों में मसल कर बुझाया गया l नार्थ ब्लाक और साउथ ब्लाक राष्ट्रीयकरण के सपनीले दौर में भी घिसटते रहे l नेहरू का शांति वन विचारधारा का विश्वविद्यालय बन शगूफों की भेंट सुलगता रहा l अदब का दिल्ली बढ़ते यातायात के दबाव में अपने माध्यम सुर में अपने यातायात के हर नियम तोड़ता गया…… और आम आदमी दिल्ली की रंगीनियों में खोता गया l सियासत करने वाले सियासी खेल खेलते रहे l इस भारत में रहने वाले विश्व की कहानी में खो गये l यू.एन.डी.पी. विदेशी कंपनीवाले, और यहाँ तक कि भारतीय नौकरशाह भी एक अदभुत कहानी बयां करते हैं l विश्व की अट्टालिकाओं में जो वैश्वी सोना जमा हो रहा है उसका चमकता द्रव्य बूँद-बूँद रिस कर नीचे ही गिरेगा l सब दिल्ली पर निर्भर है कि वह सवालों की जकड़ से बाहर आ कर कितनी तेजी से अपनी खाली हथेलियों में लपक लेती है l साँसें फुलाते हुए,आसमान की ओर देखती हुई मासूम दिल्ली विश्व से अपनी खुशहाली खींच कर मुट्ठियों में बंद करने को व्याकुल, ये मासूम सी दिल्ली गाडि़यों की बेतहाशा बढ़ती कतारों से दहल जाती है पर हर शाम हजारों रहने वालों के लिए दिल्ली फिर एक शहर हो जाती है l अमीर अपनी हवेलियों में दुबक जाते हैं गरीब रात सड़क पर बिताते है l बेबस मजबूर अपना पेट पालने के लिए दिन रात मेहनत करते हैं और दिल्ली अपनी बेबसी पर आंसूं बहाती है l दिल्ली के लिए अगर अब कुछ बचा है तो बेबसी के आंसू और कभी खत्म न होने वाला इंतजार । मेरे देश की विडम्बना तो देखिये कल भी शासक अँग्रेज थे और आज भी अँग्रेजियत के अधीन हैँ l देखा जाए तो भारत क़ि गुलामी जो अंग्रेजों के जमाने में थी, अंग्रेजों के जाने के 70 साल बाद आज भी जस की तस है क्योंकि हमने संधि कर रखी है और देश को इन खतरनाक संधियों के मकडजाल में  फंसा रखा है | जब तक देश में अंग्रेजियत की गुलामी समाप्त नहीं होगी तब तक दिल्ली और देश अपनी बदहाली पर रोता रहेगा l
सुनीता दोहरे
प्रबंध संपादक
इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़

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