“हर किसी पे ये दिल हो मेहरबां ये मुनासिब तो नहीं फिर इस सफ़र में तू आके मिले ये भी मुमकिन तो नहीं” इस इश्क रूपी प्रेम का डंक जिसे लगा बस वो ही तो असल में जी उठा के भाव को मुखरित करती मेरी ये रचना “तेरी याद के वो सुर्ख गुलाब” प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाती है. जैसे एक रूह के कत्लेआम पर रूह भी कसमसाती है. इश्क के विभिन्न आयामों से गुजरती एक प्रेमिका के समर्पण और प्रेम का आख्यान है. अपनी इबादत में अपने इष्ट देवता से अपने इश्क की दास्ताँ को बयाँ कर अपने महबूब की ख़ुशियों को मांगती है.
“यूँ तो उनकी बेवफाई का अंदाजा न था दिल में आह जगाई और साथ छोड़ गये”
इश्क की आग में तपकर निखरी नायिका सोना न बन सकी मगर अन्दर ही अन्दर सुलगकर राख बन गई. जाने वेदना कौन ? और क्यों जाने ? अंतर्मन की चिंगारी आज भी सुलग रही है. जहाँ वो खुद को हर पल जी रही है वक्त के खेल में जीने की जिजीविषा लिए नफरत के घूँट भर भर कर पी रही है मगर फिर भी ना तृप्त हुई.
“जब आये मेरे हाँथ वो तेरे नाम के गुलाब सूख कर भी सुर्ख हुए अपनी चाहतों के ख्वाब”
राह में चलते चलते संवेदनशील मन प्रहार करता है. और इस तरह करता है कि बरबस दिल की खूंटियों पर लापरवाही से टंगे अरमान बेखबर होकर मचलने लगते हैं. “सुनी” के दिल में उसके इश्क की गहराई को झांककर देखो निकल पड़ते हैं वो शब्द जो दिल को छलनी करते हुए अश्कों के समुन्दर में मोती बनकर उसके आँचल पे बिखर जाते हैं. और पीछे छोड़ जाते हैं वो रचनाओं की माला जिसमें पढने वाले को अपना अक्स, अपनी पीड़ा, अपनी ज़िन्दगी नज़र आती है . अर्थों का ज्ञान रखने वाले के मन में एक सवाल उभरता है कि जब……..
“स्त्री प्रेम करती है तो पूरी शिद्दत से करती है कोई टूटकर उसे चाहे ये मुमकिन न हुआ” !!
तेरे दिए सुर्ख फूलों के लिए….
न जाने क्यों कभी कभी लगता है मुझे फिर से कोरा कागज़ हो गयी हूँ मैं तुम ही बताओ क्या सच है ये ? सुनो…. मुझे लगा तुम ही हो जो आईने में रोज नजर आते हो ताउम्र तुझे ढूँढा हर गाँव हर गली वो न मिला और अब न ही तलाश है मुझे अब तो हद हो गई यूँ अचानक बिन बताये वो अक्स मेरे घर के दर्पण में उभर आया निढाल बेसुध एकटक निहारत रही उसे न जाने क्यों हर अक्स उस पर सिमट जाता है जिसने एक राह बनाई और दम भर को मिला तोड़कर बंधन सारे दुश्मनों से जा मिला फिर भी ? फिर भी ? फिर भी ????? अनायास ही मेरे मन ने पुकारा सुनो क्यों नही बन जाते हो फिर से मेरे क्यों न तुम मेरे मन के कोरे कागज़ पर कुछ बूंदे ही बनकर उतर आओ बन जाओ मेरे ख़्वाबों की ताबीर, न न अब अदृश्य न होना यूँ ही नजर आते रहो सुबह हो शाम हो बस एक ही किताबी चेहरा पढ़ती रहूँ और उस चेहरे में इबारत लिखी हो “तुम सिर्फ मेरे हो” सुनो तो क्या होगा ऐसा ? या यूँ ही बेखबर हूँ मैं इस इश्क के तिलिस्म से अपने इर्द गिर्द बुनना चाहती हूँ मैं एक ऐसा जाल. जिसमें मैं जिधर नजर उठाऊं तो तुम दिखो सिर्फ तुम ही तुम नजर आओ असलियत में ध्यान से सुनो छलावे में नहीं पूछा नहीं तुमने ऐसा क्यों ? जानते हो क्यों ? क्योंकि तुम “ईद का चाँद” जो बन जाते हो न न मैं खवाब को पकड़ना नहीं चाहती क्योंकि मैं जानती हूँ रेतीली जमीन पर गुलाब उगाना और वो गुलाब जो सूखकर सुर्ख हो गये हैं सुनो आज अपने ईश्वर अपने प्रभु के चरणों में अर्पित करुँगी तेरे दिए वो सुर्ख गुलाब ताकि तुम्हे सदा खुश रहने का वरदान मिल सके और सुरक्षित रह सकें तेरे दिए… तेरी याद के वो सुर्ख गुलाब……
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