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ओ सांवरे ! मुझे तेरे ही रंग में रंगना है …

sach ka aaina
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ओ सांवरे ! मुझे तेरे ही रंग में रंगना है …

“तू कुछ भी कर ले, मुझे तेरे हर जुल्म के आगे, तेरी ही ढाल बनना है
कभी राधा के नूर से, कभी मीरा के तेज़ से, मुझे तेरे ही रंग रंगना है”

मैं कोई खास शख्सियत नहीं हूँ कि मैं अपने बारे में ज्यादा लिख पाऊं एक साधारण सी जिन्दगी है मेरी….और इस साधारण सी जिन्दगी में जहाँ अपनों का भरपूर सहयोग मिल रहा है वहीँ अपनों और परायों की पहचान भी हो रही है बस जिन्दगी की एक ही ख्वाहिश है कि कभी भी मेरी बजह से किसी को कोई दुःख न पहुंचे ! बचपन से ही मैं अपनी कल्पना में जिया करती थी लेकिन उस कल्पना को शब्द भी दिए जा सकते हैं ये पता नहीं था !  जब मैंने होश संभाला तो अक्सर ये सुनने को मिल ही जाता कि “सुनी” तू तो अपने शब्दों की बाजीगरी से हर कार्य को बखूबी करने में माहिर है अपने शब्दों के जादू से जो तरंगे बिखेरती है उन तरंगों की समाज को जरूरत है मैं हंसी में टाल देती लेकिन जब भावना ये बात कहती तो मैं उससे झगड़ पड़ती मेरी इसी नाराजगी की बजह से भावना मुझसे खिंची खिंची रहने लगी थी इस कारणवश मैं काफी जद्दोजहद मैं थी और ये सोच रही थी कि भावना सही कहती है मेरा बुरा वो क्यों चाहेगी ? मैं कोशिश करतीं हूँ और इसी कोशिश में मैंने एक दिन यूँ ही बैठे बैठे एक रचना लिखी जो मेरे स्कूल के सहपाठियों के साथ साथ मेरी टीचर को भी भा गई ….फिर क्या था कोई भी स्कूल में फंक्सन होता तो “सुनी” की पूंछ बढ़ जाती मेरी पहली रचना ने मेरे कालेज में धूम मचा दी थी इसी रचना के साथ मेरे सफ़र की शुरुआत हुई … तो हाजिर है मेरे द्वारा स्वरचित वो पहली रचना जिसने मुझे मेरे वजूद से मिलवाया, आप भी पढ़िए ……..

हाँ मोहब्बत की थी, बड़ी पाकीजगी से
अगर यही सच था क्यूँ,गमसार ये मन था
यूँ झटक देना मेरी पहचान को, ख्यालों से
क्या मेरी चाहत पे उसे, एतबार नहीं था…….

रिश्ते नाते सब झूठ, कहीं कुछ सार नहीं था
मेरे जनाजे की रुखसती में, वो गमसार नहीं था
यूँ बेबस खुलीं रहीं थीं आँखें मेरी, दीदार को
मुंहफेर के गुजरा, वो मोहब्बत का तलबगार नहीं था….
तो जग वालों अब तो आलम ये है कि……

मेरी मोहब्बत को जिसने, इबादत नहीं समझा
वो शख्स मेरे प्यार का हकदार नहीं था
वफाये इश्क की इन्तहां की, बड़ी सादगी से मैंने
मैं ये नहीं कहती कि वो, बफादार नहीं था………..

जब भी कोई पीरियड खाली होता तो मेरे सहपाठियों की एक ही ख्वाहिश होती “सुनी” कुछ और नया सुनाओ और मेरे जो मन में आता सुनाती चली जाती मंत्रमुग्ध सी सहेलियां मुझे निहारा करतीं ! हाँ मुझमें एक ख़ास बात ये थी कि जो भी गीत या गजल बनाती तो पता नहीं क्यों दर्द से लबरेज़ होती थी और आज भी वही सिलसिला जारी है इसका अर्थ मैं आज तक ना समझ पाई !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

ये यादें संवार लेना तुम
दिल के कोने में सजा लेना तुम
तेरे सीने से लगके रोई थी कभी
उन जख्मों को ताजा कर लेना तुम !!!!!!!!!!!!!!!

बस अपने दिल में उठते जज्बातों को, दिल के भावों से शब्दों में पिरोकर कागज़ पर बिखेर देती हूँ, बस इतना सा ही है मेरा परिचय !.बस इतना सा ही है मेरा एकाकी जीवन !!!!!!!!!!!
या यूँ कहूँ कि ………..“कनपटी पर जो उँगलियों के निशा बाकी हैं, वक्त के फेर ने कभी खींच कर मारा था, जनाब !

सुनीता दोहरे……………

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