कोई इल्जाम नहीं… कोई ख्वाहिश नहीं… ख्वाहिश बस इतनी कि तुम सलामत रहो l
sach ka aaina
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कोई इल्जाम नहीं…कोई ख्वाहिश नहीं….. ख्वाहिश बस इतनी कि तुम सलामत रहो …
कोई इल्जाम नहीं…कोई ख्वाहिश नहीं….. ख्वाहिश बस इतनी कि तुम सलामत रहो.. सामाजिक यथार्थ विडम्बनाओं में विवश, एक स्त्री की सहनशीलता को व्यक्त करती, स्त्री-मन के परतों को खोलती हुई एक सुदृढ़ व्यथा….. ऑफिस जाते समय कार पंचर होने की बजह से बन्दना बेहद परेशान थी l उसका ऑफिस भी वहां से 10 किलोमीटर दूर था और दूर-दूर तक कोई पंचर की दुकान भी नजर नहीं आ रही थी l अचानक एक मोटरसाइकिल पास आकर रुकी l बंदना ने मुंह उठाकर देखा l उम्र यही कोई 26–27 साल रही होगी, आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक, लम्बा, गौरवर्ण व्यक्ति सामने खड़ा था l मैं विशाल हूँ l क्या मदद कर सकता हूँ आपकी ? मेरी कार का पहिया पंचर हो गया है l आप चेंज करवाने के लिए किसी को बुलवा दीजिये l बहुत मेहरबानी होगी l देखिये जी, यहाँ से पंचर की दुकान की दूरी काफी है, मैं जाकर किसी को भेजूंगा और वो जब तक आएगा, तब तक बहुत देर हो जाएगी l आप यहाँ अकेली कब तक खड़ीं रहेंगी l लाइए मैं ही बदल देता हूँ l मुझे बदलना आता है l विशाल को पहिया बदलते देख बंदना सोच रही थी अभी भी इस दुनियां में इंसानियत बाकी है l इस समय विशाल बन्दना की नजरों में एक देवता से कम नहीं था l विशाल बोला लीजिये हुजुर ! हो गया…. आपकी कार सही सलामत आपके सामने है l बस एक मेहरबानी कीजिये अपना नाम बताती जाइये l वंदना नाम है मेरा l आप विनी बुला सकते हैं l यही हजरतगंज के शक्तिभवन में मेरा ऑफिस है l आइये कभी चाय पर l ओके विनी जी l फिर मिलते हैं गुड बाय l पढ़ लिखकर बन्दना एक अच्छी नौकरी कर रही थी l दो दिन बाद लंच समय में विशाल वंदना को खोजते हुए ऑफिस में आ ही गया l दस मिनट की मुलाक़ात में विशाल वन्दना पर अपनी छाप छोड़ चुका था l ऑफिस में बंदना विशाल के बारे में ही सोचती रही l धीरे-धीरे विशाल और वंदना की दोस्ती प्रेम की डगर पर रफ्तार पकड़ने लगी l वंदना को पता था कि विशाल को अभी तक कोई नौकरी नहीं मिली है l लेकिन विशाल कहता था देखो विनी ! मैं तैयारी कर रहा हूँ एक न एक दिन नौकरी मिल ही जाएगी l दोनों मिलकर कमाएंगे, माँ-बाबूजी की सेवा करेंगे और खुश रहेंगे l वंदना भी विशाल के साथ बेहद खुश थी l आखिरकार दोनों ने शादी कर ली l कुछ दिनों तो सब सही रहा लेकिन फिर दोनों की जिन्दगी में ग्रहण सा लग गया l शाम थकी-मांदी वंदना जब घर आती तो विशाल गाली-गलौज करते हुए चीजें इधर-उधर फैंकता रहता l फिर घर से बाहर चला जाता और देर रात घर लौटता l वंदना माँ-बाबूजी को खाना खिलाकर घर का काम निपटाती और भूखी प्यासी विशाल का इन्तजार करती रहती l छुट्टी के दिन वंदना ने माँ से पूछा कि, माँ ! विशाल पूरे दिन घर पर क्या करते रहते हैं l क्या आप लोंगों से भी इसी तरह झगड़ा करते हैं ? माँ बोली, नहीं बेटा वो पूरे दिन सोता रहता है या टी. वी. देखता है, ऊपर से ये मुए दोस्त, जो यहीं डेरा डाले रहते हैं l पढाई लिखाई कुछ नहीं करता है, तुम्हारे आते ही झगड़ा शुरू कर देता है l हम लोगों ने बहुत समझाया पर हमारी सुने तब न l वंदना बोली… माँ ! सब ठीक हो जायेगा, आप चिंता मत करिए l माँ-बाबूजी को सुलाकर वंदना छत की हवा लेने आ गई l आज एक बेहद खूबसूरत शाम बंदना को न जाने क्यों बहुत उदास लग रही थी- चेहरे पर शबनम की जगह ‘खलिश’ का कोई कतरा। दर्दीली आंखों में आहिल्या जैसा पथरीला मगर अंतहीन इंतजार। प्रचुरता के बीच “कुछ’ नहीं मिलने की टीस”… दर्द से लिपटी हुई खामोशी, जैसे चुप्पी का शामियाना तन गया हो। और उसमें तन्हा वंदना जार-जार रो रही हो l कल की घटना ने उसे छलनी कर दिया था l वंदना कल की घटना को याद कर सिसकने ली……..कल हाफ डे होने की बजह से वंदना घर जल्दी आ गई थी l घर के दरवाजे से जोर-जोर से बहस की आवाजें आ रहीं थी l मुद्दा, वंदना के नौकरी करने का था l एक दोस्त कह रहा था कि तुम्हारी पत्नी के बहुत मज़े होंगे l घर में तुम और ऑफिस में उसका बॉस l दूसरा दोस्त जोर से बोला, ये क्या बोलता है विजय ! आखिरकार वंदना कमा रही है अगर ऐश भी करेगी तो क्या फर्क पड़ता है l विशाल ने अपने दोस्तों की इन बातों का कोई विरोध नहीं किया l वंदना पल भर को जड़ हो गई लेकिन, इतने कटु शब्द सुनकर भी वंदना विचलित नही हुई l वक़्त की नब्ज़ धीमे चलने लगी l विशाल की नौकरी लगने के इन्तज़ार में हर लम्हे को एक कसक के साथ जी रही थी । वह चीख भी नही सकती थी क्योंकि, उसकी तहज़ीब का ताबीज़ अभी तक उसके गले में पड़ा पेंडुलम की तरह झूल रहा है। अन्जान बनती हुई वह सबके सामने आ गई l जैसे कुछ सुना ही ना हो l उस समय तो वंदना ने विशाल से नही कहा कि …विशाल और उसके दोस्तों के बीच हुई बहस को वंदना ने सुन लिया है l वंदना को अचानक आया देख सभी घबरा गये थे l एक-एक करके सभी दोस्त चले गये और घर के सामान को इधर-उधर फैककर विशाल भी नजरें चुराकर निकल गया था l दूसरे दिन सुबह होते ही घर का काम निपटाकर वंदना ऑफिस निकल गई थी l छत पर कल की घटना को याद करके उसकी आँखें भर आईं l कभी-कभी बन्दना सोचती एक कोमल और भावुक पति को सम्भालना कोई मुश्किल काम नहीं है l मगर एक गैरजिम्मेदार, निखट्टू, ज़िद्दी, स्वार्थी, अहंकारी, निर्दयी और कठोर पति को सम्भालना हर किसी के बस की बात नहीं l लेकिन मैं हार नहीं मानूंगी….अब तुम देखना l फिर चाहें मुझे अपने कलेजे से समंदर को बाँध कर ही क्यूँ ना रखना पड़े l तुम्हे रास्ते पर लाने के लिए मुझे कभी माँ बनना है, कभी चट्टान बनना और कभी विशाल दरख़्त बनना है l और वो मैं बनूँगी. वंदना ने जैसे ठान लिया हो कि आज बात करके समस्या का हल निकाल कर रहूंगी l देर रात विशाल के आने पर वंदना ने कहा, आप कल दोस्तों के साथ किस बात को लेकर बहस कर रहे थे l विशाल नजरे चुराते हुए बोला, तुम्हे इन बातों से क्या मतलब l तुम्हारी बात नही कर रहे थे हम लोग, जो इतना विफर रही हो l बाहर की हवा जो लग गई है तुम्हे, जरा औकात में रहो समझीं l उसके बाद दो मिनट की चुप्पी जैसे सुई गिरे, तो उसकी आवाज़ भी कानों को जख्मी कर दे l फिर आसमान की ओर मुंह फाड़कर कुछ देर बाद अपनी बड़ी-बड़ी सुरमेदार आँखों को नचाकर कहने लगा- अब तुम फिर कोई सवाल मत करने लगना मुझसे, वैसे ही सुबह से सर घूम रहा है “एक कप चाय पिलानी हो तो पिला दो वरना मेरी नजरों से दूर हो जाओ” और हाँ मुझे थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ दो l विशाल कि चुभती बातें बन्दना को भीतर तक चीर गईं, लेकिन वो असहाय सी खड़ीं अपनी किस्मत को कोसती रही l जिस तरह बन्दना की आँखें बरसती हैं l ठीक उसी तरह आज ये वर्षा खुलने का नाम नहीं ले रही। रात दिन झर-झर कर बरस रही है l बन्दना की आँखों का पानी इसी बारिश में घुल मिल सा जाता है बिशाल ने उसकी आँखों के मोतियों की कभी कीमत ही नही समझी l माँ बाबूजी जी भी चुपचाप सब सुनते रहते l वो बेचारे करते भी क्या ? ले, दे के एक बेटा ही तो था l जिसे वो कुछ कहकर घर की शांती भंग नहीं करना चाहते थे l क्योंकि वंदना का पति विशाल अक्खड़ मिजाज और जिम्मेदारियों से दूर भागने वालों में से था l कॉलेज की पढ़ाई पूरा किये तो विशाल को जमाना हो गया था l लेकिन कॉलेज के बिगडैल दोस्तों से उसका पीछा नहीं छूटा l लगभग रोज ही कॉलेज के निखट्टू दोस्तों के साथ सुबह से शाम तक जूतियाँ चटकाता घूमता फिरता रहता। हालांकि उसके कई दोस्त तो नौकरी पाकर दूसरे शहरों में चले गये थे l बस यही तीन बचे थे l जो तिगड़ी के नाम से कॉलोनी में मशहूर थे l अपने पति के निखट्टूपन की कसैली बातें वन्दना के कलेजे को चीर जाती । परन्तु वह क्या करे ? ना जाने कितनी बार वंदना मन्दिर में बैठी दुर्गा माँ के सामने फफक-फफक कर रोई है l वंदना ने वो हर प्रयास किया जिससे उसके पति की अक्ल का बन्द ताला खुल जाये और वो आदमी बन जाए l विशाल की सारी गल्तियों को वंदना भूल जाती और सोचती जब नौकरी लग जाएगी तो शायद विशाल में सुधार आ जाये l लेकिन कल की दोस्तों के साथ हुई बातचीत को वंदना भूल नहीं पा रही थी l और आज उसके सब्र का बाँध टूट ही गया…. वो जोर से चिल्लाई …..! सुनो मिस्टर पति देव ! रिश्ता बनाने से रिश्ता नहीं बनता, बल्कि रिश्ता निभाने से रिश्ता बनता है l “अगर तुम्हारा ख़ून नहीं खौलता अपनी पत्नी के अपमान पर तो यकीन मानो तुम शादी के रिश्ते को निभाने के लायक नहीं हो”l अब तुम भी ध्यान से सुन लो l आवश्यकता से अधिक मेरे धैर्य का इम्तहान ना लो l मुझे तुमसे सिर्फ तुम्हारा साथ चाहिए था और इसी भरोसे पर तुम्हारी चौखट को लाँघ कर तुम्हारे दुःख दर्द में शामिल होने आई थी लेकिन तुमने मेरे दिल की कभी नहीं सुनी l तो अब सुनो ! “दर्द इतना है, की रग-रग में टीस उठती है और तुम्हारे साथ मुझे सुकून इतना है, कि मर जाने को जी चाहता है!” लेकिन आज के बाद एक बात तो अच्छे से समझ लेना तुम l तुमने अगर कभी मेरी रूह को छुआ हो, तो मेरी देह छूने मत उतरना l अब तुम मुझे कभी नहीं पा पाओगे l विशाल नीचे सर करके बैठ गया l विशाल ने सोचा भी नहीं था कि वंदना एक दिन उसको ऐसा जवाब दे देगी l रात का ग्यारह बज रहा था l वह फिर भी घर से बाहर चला गया । बंदना फिर सवालातों को दिल थामे जाते हुए देखती रह गई l “नये-नये प्रेम के गलीचे पे, एहसासों के मखमली रेशे….उसके नाजुक पैरो को बहुत सुकूँ देते होंगे l शायद इसीलिए, वो इतनी बेरुखी से……सबकुछ रौंद कर चलता चला गया l रोते-रोते वंदना ना जाने कब सो गई l सुबह हुई लेकिन रविवार होने कि बजह से आज ऑफिस बंद था l सास-ससुर को खाना खिलाकर वंदना ने घर के काम निपटाए l पूरे दिन विशाल का रास्ता देखा लेकिन, विशाल नहीं आया. सांझ का झुरकुटा अपने पूरे योवन पर झूम रहा था l धीरे-धीरे ठंडी हवाओं के झोकों की खुमारी को महसूस करते हुए बन्दना अनवरत सी टहले जा रही थी अपने लॉन की घास पर नंगे पैर, गुमसुम सी सोचती हुई….. उफ्फ !!!! कितनी सर्दी है l बेतरतीब फैली झाड़ियां-उगी घास बताती थी कि यहां से कोई राह नहीं गुजरती । विशाल न जाने कहाँ होगा, किस हाल में होगा l चारों तरफ सन्नाटा ही सन्नाटा बिखरा है सन्नाटे का अपना ही संगीत होता है सुन सको तो l लेकिन वंदना सिर्फ विशाल के ही बारे में सोचे जा रही थी l कैसे समझाए वो कि, इस तरह विशाल अपनी सेहत और सीरत दोनों दोज़ख के हवाले करने पर तुला हुआ है l अचानक हुई आहट से वन्दना की देह किसी लम्बी नींद से जागी और बुदबुदाई उफ्फ बड़ी देर हो गई l सामने से विशाल हाँथ में पट्टी बांधे धीरे-धीरे आ रहा था l वंदना चीखते हुए दौड़ी l क्या हुआ विशाल, तुम इतनी देर से कहाँ थे, ये सब कैसे हो गया ? पापा जल्दी आइये विशाल को चोट लग गई है l वंदना बेतहाशा रोये जा रही थी l एक ही बात बुदबुदा रही थी l विशाल मैं तुम्हे कुछ नहीं होने दूंगी l अब मुझे एक बवंडर को अपनी तर्ज़नी के इर्द गिर्द लपेट लेना है और दुखते कलेजे और लहुलुहान तर्ज़नी को परे रख अपने पति के बालों को सहला कर सुलाना है l तुम्हे कभी कुछ नहीं कहूँगी l कोई इल्जाम नहीं…कोई ख्वाहिश नहीं….. ख्वाहिश बस इतनी कि तुम सलामत रहो l विशाल फफकते हुए बोला… वंदना ! तुम मुझे अभी भी प्रेम करती हो ? हाँ विशाल ! ‘मैं पहली दफा मोहब्बत का चेहरा देख रही हूं। इस चेहरे को तुम मेरी आंखों की पुतलियों में देख सकते हो।’ सुनो…! तुम्हारी आँखों की इस असीम गहराई में, उन आंखों को पढने की कोशिश कर रही हूँ …. जो बहुत कम छलकी हैं…. उस आवाज की गहराई में उतरने की कोशिश कर रही हूँ… जो मेरी आँखों में झांककर, तुम कहना चाहते हो. मुझे सुबह ऑफिस में जब वंदना मिली, तो बहुत खुश लग रही थी l पूछने पर इतना ही बताया l कि शाम को चाय पर मिलते हैं l शाम को वंदना एक दुल्हन की तरह सजधज कर अपने पति के साथ घर पर आई l मिठाई देते हुए बोली निशा मिठाई खाओ इन्होने एक नई कम्पनी खोली है l कुछ दिनों बाद उसकी ओपनिग है l आप सबको आना है l वंदना की ख़ुशी देखकर विशाल मुस्करा रहा था. किचन में चाय बनाने के बहाने वंदना ने अपनी आप बीती सुनाई l सुनकर दिल ये सोचने पर मजबूर हो गया कि दुल्हन के सुर्ख जोड़े में सजी, मेहंदी लगे हांथ और सुर्ख मेकअप के उस पार की बन्दना कितनी मासूम होगी l कितना दर्द झेला इसने लेकिन, हिम्मत नही हारी इसलिए आज समाज के सामने सर उठाकर खड़ीं है l वक्त के थपेड़ों ने वंदना को मजबूत बना दिया था l अंत बहुत ही खुशनुमा हुआ. एक दायरे में बंधी स्त्री, जज्बात की डोर से बंधी स्त्री, सब्र और धीरज सहित चुप्पी का हाथ थामे बैठी स्त्री कितनी सहनशील है l फिर भी वैश्वीकरण के इस युग में जहाँ एक ओर हम तरक्की ओर विकास की बातें करते हैं। स्त्री-पुरुष समानता के बातें करते हैं। इस विषय के तह में जाय तो हम पाते है कि स्थिति हमेशा से ऐसी नहीं रही हैं । इसके लिए स्त्रियों ने काफी क़ुर्बानियाँ दी, संघर्ष किया और कर रही है, परन्तु दासता की बेड़िया इतनी सघन हैं, कि काटे नहीं कट रही हैं। भारत मैं नारियों की स्थिति सदियो से दयनीये रही हैं। यहाँ पर बंदना ने सिर्फ इतना ही तो चाहा था कि नौकरी नहीं लग रही, कोई बात नही पर जीविका चलाने के लिए विशाल कुछ काम धंधा कर ले l फालतू के दोस्तों के साथ इतना ज्यादा समय ना बर्बाद करे l आखिर बन्दना की इस सोच मैं बुराई क्या थी l आखिर विशाल को अपने बूढ़े माँ बाप की रोजी रोटी का ख्याल रखना चाहिए था कि नही l यहाँ अगर वंदना हिम्मत हार जाती तो विशाल के साथ-साथ उन बूढ़े माँ-बाप पर क्या बीतती l वंदना जैसी हजारों स्त्रियाँ आज इस आग में जल रहीं है …. सुनीता दोहरे
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