बॉक्स…. अगर आप कांग्रेस के इतिहास को उठाकर देखें तो हर दौर में एक कांग्रेसी एक दूसरे को निपटाता नज़र आएगा. जैसे ही पर निकलते हैं. तो देखते-देखते एक दूसरे के पर कतर दिए जाते हैं……. कोयला घोटाले में सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी के बाद पंगु बनी सरकार अब सपा और बसपा को ही संकटमोचक मान रही है। यूपीए के मैनेजरों को दोनों से राहत की उम्मीद है। दोनों के बलबूते ही वह संसद में आगे के कामकाज और खुद को बहुमत में दिखाने की हिम्मत रखे हुए है. इस टिप्पणी के बाद समाजवादी पार्टी में सरकार को लेकर रवैया नरम गरम जैसा है. मगर बसपा भाजपा को कटघरे में खड़े कर सरकार के साथ होने का संकेत दे रही है. विगत दिनों वित्तीय कामकाज निपटाने के समय लोकसभा में ज्यादातर दलों ने सरकार के खिलाफ वाकआउट किया था मगर सपा और बसपा के सदस्य सदन में ही जमे रहे. सरकार इसे अपने पॉलिटिकल मैनेजमेंट की सबसे बड़ी जीत मान रही है. उसकी कोशिश है कि दोनों सदन के अंदर भाजपा के हंगामे का विरोध कर संसद को चलाने की पैरवी करें. इसी सिलसिले में बातचीत का दौर जारी है. सरकार को उम्मीद है कि उसे कामयाबी मिलेगी। उसके लिए राहत की बात यह भी है कि कोर्ट के सख्त रुख के बाद सपा ने सरकार के खिलाफ आक्रामक होने से परहेज किया. सपा महासचिव रामगोपाल यादव का कहना था कि कोर्ट ने टिप्पणी की है। यह कोई फैसला नहीं है। फैसला आने के बाद विचार किया जाएगा। मगर सपा ने सरकार पर सीबीआई के दुरुपयोग करने का आरोप जरूर लगाया। सपा नेता नरेश अग्रवाल ने कहा कि कोर्ट की बात से सरकार द्वारा सीबीआई के दुरुपयोग होने की बात सच हो जाती है। सरकार के रणनीतिकार लेकिन सपा के इस नरम गरम रवैये से कोई खास चिंतित नहीं है। उसको उम्मीद है कि सपा संसद के अंदर सरकार के पक्ष में बैटिंग करेगी. दूसरी तरफ ऐसी ही अपेक्षा सरकार और कांग्रेस बसपा से भी कर रही हैं। कोर्ट की राय आने के बाद मायावती ने कहा था कि सीबीआई का दुरुपयोग होता है। एनडीए सरकार के दौरान भी उनके खिलाफ सीबीआई का दुरुपयोग किया गया था। कोर्ट ने बिलकुल सही दिशा में अपनी बात रखी है। मायावती की इस राय को मैनेजर सरकार के खिलाफ नहीं मान रहे हैं। उनका कहना है कि अगर सपा और बसपा हमारे साथ नहीं होती तो उसी दिन लोकसभा से वाकआउट कर जातीं। इस भरोसे के बाद भी रणनीतिकार काफी सतर्क हैं। दोनों पार्टियों के शीर्ष नेताओं से संपर्क रखा जा रहा है. सोचने की बात है कि पिछले कई सालों में ऐसा कोई साल नहीं गया जब किसी घोटाले पर से इस सरकार में पर्दा न उठा हो. पर इधर हाल के कुछ वर्षों में घोटालों के मुखर होने की झड़ी जैसी लग गई है. अगर आप कांग्रेस के इतिहास को उठाकर देखें तो हर दौर में एक कांग्रेसी दूसरे को निपटाता नज़र आएगा. जैसे ही एक के पर निकलते हैं तो देखते-देखते दूसरे के पर कतरे जाते हैं. और यह भी कोई विस्मय की बात नहीं कि कर्नाटक विधान सभा चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री एसएम कृष्णा पूरी तरह किनारे हैं. बहरहाल जो भी हो ये कहने की बात नहीं कि सन 1996 के चुनाव में हार और उसके बाद एक के बाद एक मिली-जुली सरकारें बनने के बावजूद कांग्रेस ने गठबंधन के महत्व को नहीं समझा. देखा जाये तो यूपीए-2 ने न तो कोई साझा कार्यक्रम बनाया और न समन्वय समिति बनाई उलटे खुदरा बाजार जैसे बड़े-बड़े फैसले भी उसने सहयोगी दलों से विमर्श के बगैर किए. जैसे कि नवम्बर 2011 का खुदरा बाजार में विदेशी निवेश का फैसला हो या मार्च 2012 का एनसीटीसी बनाने का निर्णय, सहयोगी दल शोर मचाते रहे. सरकार आत्मलीन होकर उन कार्यों के फैसले लेती रही जिससे सरकार को वोट बैंक और कुर्सी साधने का बेशकीमती तोहफा मिलता रहा. और सियासत के खेल इतने खेले कि अनाज की कीमतें बढ़ीं तो राहुल गांधी का दो टूक जवाब कि कृषि मंत्रालय हमारे पास नहीं है. और 2जी मामले पर मनमोहन सिंह का राटा रटाया एक ही हमेशा स्टैंडर्ड जवाब रहा कि गठबंधन की मजबूरी. कांग्रेस अपनी खामियों के लिए हमेशा गठबंधन को ही कोसती रही. सरकार की छवि खराब न हो इसलिए छवि को दुरुस्त और बेदाग़ करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 10 मई 2011 को पब्लिक रिलेशनिंग के लिए एक और ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स बनाया. सुनाने में आया कि इस ग्रुप की हर रोज़ बैठक होगी और मीडिया को ब्रीफ किया जाएगा. ये भी एक बहुत बड़ा सच है कि कांग्रेस पार्टी के महत्वपूर्ण नेता उत्तर भारत से आते थे. आज हिन्दी पट्टी में कांग्रेस वस्तुतः गायब है. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, और झारखंड में वह सत्ता से बाहर है. 2009 में कांग्रेस को यूपी में 21 सीटें मिली थीं. लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी सपा, बसपा और बीजेपी से भी पीछे रही. कांग्रेस अब कुएं और खाई के बीच खड़ी है. उन दिनों हुए कांग्रेस के रास्ते की बहुत बड़ी बाधा लोकपाल कानून को लेकर टालमटोल भी जनता के बीच असर दिखा सकता है. क्योंकि लोकपाल आंदोलन स्वतः स्फूर्त आंदोलन नहीं था. इस आंदोलन के साथ देश के बड़े मध्यमवर्ग की हमदर्दी थी. पहले तो कांग्रेस इसकी उपेक्षा करती रही फिर एक संयुक्त ड्राफ्टिंग कमेटी बना ली और अपनी मर्जी से ड्राफ्ट बनाकर उसे सफल बनाने का काम सरकार ने किया. लेकिन उन दिनों जो बवाल हुआ वो आम जनता के ह्रदय को भींच कर कांग्रेस के प्रति उदासीन कर गया. जनता के सामने आने से ये बात भी नही बची कि पहले तो बाबा रामदेव के स्वागत में मंत्री गए फिर रात में लाठी चलवा दी. और पहले अन्ना हजारे को गिरफ्तार किया और देखते-देखते फिर संसद की मंशा का प्रस्ताव पास करा दिया. दिसम्बर 2011 के आखिरी हफ्ते में एंटी क्लाइमैक्स होने दिया. ताज्जुब तो इस बात का है कि इसके बाद पलट कर इस तरफ देखा भी नहीं. एक बात तो मैं बताना भूल ही गयी कि लालकृष्ण आडवाणी के पराभव के बाद रसातल की ओर जा रही भारतीय जनता पार्टी को नकारात्मक प्रचार का फ़ायदा मिला और कांग्रेस को नुकसान…………. सुनीता दोहरे …....
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