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दुर्व्यवहार की शिकार होती दलित महिलाएं..

sach ka aaina
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सुनीता दोहरे

दुर्व्यवहार की शिकार होती दलित महिलाएं...

मध्य प्रदेश ठाकुरों (चौहान, सिंह) का अखाडा है। कहते हैं कि ब्राम्हणों और बनियों को कुछ न कुछ थमा कर मूक दर्शक बना लिया जाता है।  दुर्व्यवहार की शिकार सबसे ज़्यादा दलित महिलाएं होती हैं
ग़रीब, दलित, महिला ये तीनों फैक्टर इनके शोषण में मुख्य भूमिका निभाते हैं आए दिन दलित तबके की महिलाओं पर उच्च जाति के समाज द्वारा ज़ुल्म ढाने की घटनाएं सामने आती रहती हैं! ये सौ फीसदी सत्य है कि अदालत के द्वारा दलित महिलाओं को प्रताड़ित करने वाले मामलों में अपराधियों को सिर्फ एक फीसद ही सजा सुनाई जाती है और वहीँ दूसरी तरफ अदालत में अपराधियों को सजा से मुक्त करना भी महिलाओं के साथ अत्याचार का बड़ा कारण बनती है जब भी किसी  पीड़ित महिला ने अपने ऊपर हुए ज़ुल्म का विरोध किया है तो इन महिलाओं को जिंदा जला डालने, कभी निर्वस्त्र कर गांव में घुमाने, उनके परिजनों को बंधक बनाने और मल खिलाने जैसे पाशविक और पैशाचिक कृत्य वाली घटनाएं अक्सर सामने आती रही  हैं ! वैसे तो समूचे भारत में दलितों और दलित महिलाओं के साथ हुए अत्याचार की चीखें गूंजती रहतीं हैं ऐसा नहीं है कि इसकी गूंज संसद के गलियारों में सुनाई नहीं देती ! देखा जाए तो दलितों के प्रति हुए अत्याचार की गूंज क्षेत्र की पुलिस चौकियों, थानों में ही दम तोड़ देती हैं ! ठाकुरों की लाठियाँ का कहर जब बरसता है तो दलितों की सिसकियाँ सुनाई देती हैं पुलिस के बूटो की बट दलितों के सीनों पर कील ठौंकती नजर आती है इनकी दर्दनाक चीखें संसद में बैठे चाटुकारों की उठापटक में सिमट के रह जाती है दलित महिलाओं के हालात किसी से छुपे नहीं हैं मुझे ये कहने मैं कतई संकोच नहीं कि भारत मे दलितों को बहुत चौकन्ना होकर अपना जीवन जीना पड़ता है बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर के कारण दलितों के हालात बहुत कुछ सुधर गये है, वर्ना तो जानवरो से भी बदतर हालत थी इन लोगों की !  नैशनल क्राइम ब्यूरो के रेकॉर्ड के अनुसार मध्य प्रदेश महिलाओ पर अत्याचार के मामले मे लगातार कई सालो से टॉप पर रहा है मध्य प्रदेश की एक और सच्चाई ये है कि हम प्रगतिशील और सभ्य समाज की ओर बढ़ने का दावा भले ही करते हों लेकिन हमारी ज़रा सी चमड़ी खरोंच कर देखी जाय तो वहीं पुराने परम्परागत आचार-व्यवहार सडांध मारते दिखाई देंगे जिन्हें हम पीछे छोड़ने की बात तो करते हैं लेकिन बंधे आज भी उसी जाति पांति के फेर में हैं ! वैसे मध्य प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों के बड़े भ्रष्टाचार के किस्से प्रकाशित होते रहते हैं इस घटना ने भी वहां के ला एंड आर्डेर की पोल खोल कर रख दी है! आपने ये तो खूब सुना होगा कि किसी भी समाज का स्वरूप वहां के महिलाओं की स्तिथि पर निर्भर करता है. अगर उसकी स्तिथि सुदृढ़ और सम्मानजनक है, तो समाज भी दृढ़ और मज़बूत होता है ! अगर सही मायने में भारतीय संदर्भ में देखें तो हमें ज्ञात होता है कि आज़ादी के बाद शहरी और स्वर्ण महिलाओं की स्तिथि में तो बहुत सुधार हुआ है, लेकिन पिछड़े ग्रामीण इलाकों और दलित महिलाओं की स्तिथि क्या है? इस बात का अंदाज़ा आप 16-3-2015 दिन सोमवार को कुसुम जाटव नाम की दलित महिला के साथ हुए अत्याचार को देखकर लगा सकते हैं !
गौरतलब हो कि (शिवपुरी) मध्य प्रदेश के कुवारपुर गाँव में कुछ गुंडों ने एक दलित महिला को गोबर खाने के लिए मजबूर किया क्योंकि वह गाँव की उपसरपंच चुनी गई थी ! घटना 16-3-2015 दिन सोमवार की है। कुसुम जाटव नाम की दलित महिला अपने गांव की उप सरपंच चुनी गई थीं। एक दलित महिला का उप सरपंच चुना जाना गांव के सरपंच कंचन रावत को नागवार गुजरा। इसी बात से गुस्सा होकर कंचन रावत कुछ गुंडों के साथ कुसुम के घर पहुंच गया। कंचन रावत ने सिर्फ कुसुम की परिवार को बुरी तरह पीटा। इतना ही नहीं उन्होंने कुसुम को गोबर खाने के लिए मजबूर भी किया। यह तो एक बानगी भर है. आज आज़ादी के छः दशक बाद भी दलित महिलाओं को हिंसा, भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है ! पहली नजर में सामान्य सा लगने वाला विवाद, अपने भीतर गहरे दलित स्त्री विमर्श, दलित स्त्री के वजूद की चिंताएं समेटे हुए है। असल में यह इस दलित स्त्री के उस निर्णय की सजा है, जो उसने अपने अस्तित्व के लिए अपनी आत्मा की आवाज से लिया था !
विदित हो कि भारतीय संविधान ने महिला व पुरुष दोनों को समकक्ष रखकर उनके विकास के लिए समान अवसरों की गारंटी दी। अनेक प्रावधानों द्वारा महिला को सुरक्षा तथा संरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की गई। पर इन सबके बावजूद महिला की स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया, क्योंकि सामाजिक रवैए में बुनियादी बदलाव नहीं हुए। समाज ने महिला के प्रति अपने दायित्व के निर्वहन में कोताही बरती। यही वजह है कि आए दिन महिलाओं और विशेषकर पिछड़ी, दलित, दमित तबके की महिलाओं पर सवर्ण, संपन्न समाज अपना जुल्म ढा रहा है। संसद मे छोटी सी बात को घुमा फिरा कर नारी के अपमान का मुद्दा बनाया जाता है परंतु जहाँ सचमुच नारी और दलित का अपमान होता है उसको मुद्दा बनता ना देख इतनी तिलमिलाहट होती है ! किसी भी राजनीतिक दल में इतनी राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं जो समाजघातक सामंती मूल्यों से लड़ सके उल्टे ये येन-केन प्रकारेण इनका संरक्षण ही करते हैं ! कैसा है हमारे देश का कानून और कैसा है हमारे देश का शासक ?
जब जब दलित महिलाओं के साथ कोई अत्याचार हुआ है तब तब ये मीडिया, नेता, पुलिस प्रशासन समाजसेवी संगठन आदि अपनी आँखें बंद किये रहते हैं इन दलित महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए कहीं कोई आवाज़ नहीं उठाई जाती ! अगर ये महिलाएं किसी बड़े शहर, सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न किसी स्वर्ण समाज से होतीं तो क्या तब भी मीडिया, राजनेता और समाजसेवी संगठन इसी तरह की ख़ामोशी होती? उन दिनों निर्भया केस में कैंडल मार्च निकाल कर अपना विरोध दर्ज करने वाले देश के प्रबुद्ध नागरिक और आंसू बहाने वाले लोग, और 24 घंटे प्रसारण कर न्याय दिलाने वाली मीडिया आदि  देश के ग्रामीण क्षेत्रों में दलित महिलाओं के साथ हो रहे ऐसे अत्याचारों पर क्यों खामोश हो जाते हैं? इतना सब देखते हुए मुझे ये लगता है कि दलित महिलाओं सहित भारत की समूची नारी जाति के सशक्तीकरण पर ध्यान देना चाहिए ! ऐसी घटनाओं पर अवश्य विचार करते हुए नारी बचाओ आन्दोलन से पहले पुलिस तंत्र को मजबूत करन चाहिए !
इन घटनाओं के पीछे उभरकर आने वाली बजहये दर्शाती है कि समाज में अभी भी सामंती मानसिकता कायम है जिसके चलते दलित समुदाय बहिष्कृत जीवन जीने को विवश है। दलितों को शेष समाज के साथ भेदभाव रहित जीवन जीने के लिए किए जा रहे सरकारी एवं गैर सरकारी प्रयासों के बावजूद उनके सामाजिक बहिष्कार के नए नए रूप देखने को मिल रहे हैं। जैसे अब दलितों पर सीधे प्रहार नहीं किया जाता, बल्कि उन पर कई आरोप लगा दिए जाते हैं, मसलन – दलित युवा ने शेष समाज की महिलाओं से छेड़छाड़ की है या करने का प्रयास कर रहा था, वह शराबी था जिससे गांव का माहौल खराब हो रहा था और फिर उसके बाद उन पर हमला किया जाता है। ऐसे आरोपों का निराधार होना अचरज की बात नहीं, क्योंकि ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर पड़े दलितों की सामाजिक हैसियत अभी भी निम्न है और प्रशासन, पैसा और सत्ता के गठजोड़ में स्वर्णों की तुलना मे वे कहीं नहीं टिकते ! उपरोक्त परिस्थितियों को देखकर लगता है कि समूचे भारत में कानून व्यवस्था की स्थिति गंभीर है और केंद्र सरकार इन मामलों में उदासीन रवैया ही अपना रही है। केंद्र सरकार यह दावा तो कर रही है कि भारत को भयमुक्त बनाना है पर सरकार द्वारा ली गई इस जिम्मेदारी का परिणाम दिख नही रहा है और दलित महिलाओं के साथ साथ दलितों का उत्पीड़न लगातार जारी है।
और अब चलते चलते मैं ये भी बताना चाहूंगी कि इंटरनेशनल कन्वेंशन ऑन सिविल एण्ड पॉलटिकल राइट्स के अनुसार भारत सरकार का दायित्व एक ऐसा माहौल बनाना है जिसमें दलित महिलाओं को यंत्रणा, गुलामी, क्रूरता से आजादी मिले, कानून, अदालत के सम्मुख उसकी पहचान एक मानव के नाते हो। ज्ञात हो कि भारत ने कई ऐसी अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों पर हस्ताक्षर किए हुए हैं जो महिला व पुरूष दोनों की बराबरी की वकालत करते हैं। अंतरराष्ट्रीय कानूनों में यह स्वीकार किया गया है कि सरकार का काम महज मानवाधिकार संरक्षण प्रदान करने वाले कानूनों को बनाना ही नहीं है बल्कि इसके परे ठोस पहल करना भी है। सरकार का काम ऐसी नीतियां बनाना व बजट में प्रावधान करना है ताकि महिलाएं अपने अधिकारों का इस्तेमाल बिना किसी खौफ से कर सकें। इसके अतिरिक्त जाति आधारित हिंसा व भेदभाव करने वालों को सख्त से सख्त सजा देना भी है। लेकिन इन सब पर अमल होता कहाँ है !
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक
इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज

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