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“जाति न पूछिए साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान !!! “
वर्षों पहले पढ़े इस वाक्य ने मेरे मस्तिष्क में ऐसी उथल – पुथल मचाई कि मैं इस विषय पर मनन करने पर विवश हो उठी |
मेरा आप सभी से विनम्र निवेदन है कि इसे मेरा किसी जाति या धर्म पर कटाक्ष न समझे | मात्र एक चिंतन स्वरूप इसे स्वीकार करें | यह लेख मैंने अपने विचारों को आकार देकर आपके समक्ष प्रस्तुत करने हेतु लिखा है |
उस विद्वान् के क्रांतिकारी शब्द मेरे मन पर एक अमिट छाप छोड़ गए | उस एक वाक्य ने मुझे झंझोर कर रख दिया | इस घटना के उपरान्त मै अपने आस- पास ही इस वाक्य का साक्ष्य तलाश करने लगी | मैंने समाज में ही इसकी सत्यता को परखने का प्रयास किया |
क्या वाकई जाति या धर्म का आपके नैतिक मूल्यों और कर्म से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध होता है ???? यह एक ऐसा सवाल है जिस पर सभी व्यक्ति अपना भिन्न – भिन्न मत प्रकट करेंगे |
अनेकों वर्ष पूर्व विभिन्न प्रकार के वर्णों का निर्माण हुआ | इसके पीछे एक ही उद्देश्य था कि व्यक्तिविशेष कि पहचान उसकी दिनचर्या के तेहत निर्धारित की जा सके |
इस योजना के सृजनकर्ता ने लेशमात्र भी भविष्य में उत्पन्न होने वाली भेद भाव पूर्ण नीतियों के बारे में नहीं सोचा होगा | परन्तु जैसे-जैसे वक्त की रेत हाथों से फिसलती चली गयी वैसे-वैसे जाति ही कर्म निर्धारण का पैमाना बन चली | धीरे-धीरे यह पैमैने इतने पुरजोर एवं जड़ीभूत हो गए कि हम “कर्म“ और “जाति” को एक ही सिक्के के दो पहलु समझ बैठे |
उच्च वर्ग के लोग खुद को पावन , प्रतिष्ठित एवं औरों से ज़्यादा सक्षम सिद्ध करने हेतु जाति – पति की दीवार को मज़बूती प्रदान करते गए | देखते ही देखते यह दीवार इतनी ऊँची हो चली कि इसे पार करना असंभव हो चला ……
वह भूल गए कि हम सभी एक ही परमेश्वर की संतान हैं और हमारा समय इस जग में सीमित है | ईश्वर ने हमें भिन्नता इस कारण प्रदान की है कि हम मिलजुल कर उसके जग को और भी सुन्दर बनाए न की वैमनस्य फैलाये |
हम सभी को मिल कर ऐसी तुच्छ सोच की विषाक्त जड़ों को उखाड़ फेकना चाहिए | यह हमारे समाज को अन्दर ही अन्दर खाए जा रही है और समाज की सोच को संकीर्ण बना रही है |
व्यक्ति के चरित्र का विश्लेषण उसके कर्मों से किया जाना चाहिए न कि जाति से | कर्म सर्वोपरि है |
यह एक अत्यंत दुःख कि बात है कि हमारे समाज में महानता का पैमाना पूर्वजों के कर्म से निर्धारित किया जाता है | यह एक आम सोच है कि हम महान है क्योंकि हमारी जाति उच्च है एवं हम में एक महान व्यक्ति के खून का संचार हो रहा है , परन्तु महानता का पैमाना किसके खून का संचार हम में हो रहा है इससे नहीं बल्कि किस प्रकार के विचारों का संचार हमारे मस्तिष्क में हो रहा इससे होता है |
यह मान्यता सच है कि संस्कार हमारे पूर्वजों कि देन होते है , परन्तु यह बात कुछ हद तक ही सही है | मै ऐसा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि पूर्वजों का संस्कार को देना ही ज़रूरी नहीं है बल्कि इनको ग्रहण करना भी ज़रूरी है |
अधिकतर संस्कार जो हम में मौजूद है उनका निर्माण हम स्वयं अपने कर्मों से करते हैं | जिस प्रकार कर्म संस्कार निर्माण में सहायक है, उसी प्रकार संस्कार कर्म निर्धारित करते है |
इसी प्रकार यह जीवन चक्र चलता रहता है और नए-नए संस्कार हम में घर करते जाते है…..
एक तथाकथित निम्न वर्ग का व्यक्ति अपने कर्मों से खुद को सफलता कि बुलंदियों तक ले जा सकता है | इसी प्रकार एक उच्च वर्ग का व्यक्ति अपनी तुच्छ विचारधारा एवं दुष्कर्मों से असफलता के गर्त में गिर जाता है |
मै आपसे असल जिंदिगी का एक ऐसा ही वाक्या बाँटना चाहती हूँ | मेरे अग्रज के सहपाठी एक बार अपना दुःख हम सभी से बाँट रहे थे जिसे कहते हुए उनका गला रूंध गया |
उनके पिता का जन्म एक धनि, सुप्रतिष्ठित एवं उच्च कुल में हुआ था | परन्तु जुएँ एवं मधपान की लत ने उनके मान-सम्मान ,धन-दौलत सभी चीज़े नष्ट कर दी | धीरे-धीरे उन्होंने सभी जेवर बेच दिए , फिर मकान भी गिरवी रख दिया और सब कुछ नष्ट हो गया|
दूसरी ओर तथाकथित निम्नाकुल में जन्म लेने वाली मेरी सहेली ने अपने परिवार का नाम अपने कर्मों से उज्जवल किया | वह शुरू से ही पढाई में अव्वल रही और पाक-कला में तो उसका कोई हाथ नहीं पकड़ सकता | इसी सब के चलते उसे विभिन्न छात्रवृत्तियां मिली और प्रसिद्धि भी |
अब ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाणों के होते हुए मै जाति और कर्म में समानता नहीं समझती | इस विषय पर कहने और सुनने को बहुत कुछ है परन्तु अपने इस छोटे से लेख में सभी चीजों का समागम करना असंभव है |
विचारों के इसी मोड़ पर मै आप सभी से अलविदा चाहूंगी…….
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