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इंसेफ्लाइटिसः राम नाम सत्य है…

nai baat
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पांच नवंबर, दिन शनिवार। विदाई की तरफ बढ़ रहे  साल 2011 में अब तक का मेरे लिए सबसे मनहूस दिन। अयोध्या में सरयू तट पर रामनाम सत्य है, और सत्य बोलो मुक्त है, के शोर में मैं खुद को गुम पा रहा हूं। अपने फुफेरे भाई राकेश उर्फ भल्लू की अर्थी को कंधा देने के बाद दुनिया में मैं खुद को सबसे दीन-हीन पा रहा हूं। जेहन में तमाम सवाल हैं,  क्या भल्लू भाई की यह उमर थी हम सबको बिलखता छोड़ जाने की… क्या हममें से कोई भी अदने से बुखार की वजह से जिंदगी हार सकता है, इत्यादि-इत्यादि। बुआ ने बताया कि दीपावली के दिन भल्लू को बुखार आया, कोई गोली निगली, कुछ ठीक हुए फिर जुट गए जिंदगी की जद्दोजहद में। फिर दो दिन बाद तबियत बिगड़ी। बस्ती शहर में डाक्टर को दिखाया, शायद उसने टाइफाइड बताया। दवा दी, लेकिन सेहत नहीं सुधरी। सोमवार को भल्लू भाई को बस्ती में किसी सहाय डाक्टर को दिखाया गया। उन्होंने सिमटम्स देखे तो लखनऊ ले जाने की सलाह दी। लखनऊ में सहारा सुपर स्पेशयलिटी हास्पिटल में इलाज शुरू हुआ, लेकिन न दवा काम आई, न दुआ। शुक्रवार चार नवंबर  की शाम 4.10 बजे के आसपास भल्लू भाई ने आंखें मूंद ली, हमेशा के लिए। मुझे रात 10 बजे जब फर्स्ट डाक फाइनल करने के बाद यह सूचना मिली तो सिर्फ हाथ मलने के अलावा कोई चारा नहीं था। बास से अनुमति लेकर छोटे भाई दीपू के साथ बस्ती के लिए भागा। अंतिम यात्रा में शामिल हुआ। उसके बाद से यही सोच रहा हूं कि क्या हम बुखार के आगे भी बेबस हैं। यदि नहीं तो भल्लू भाई बच क्यों नहीं पाए। करीब तीन लाख रुपये खर्च होने के बावजूद। हम भारतीय ज्ञान के भंडार कहलाते वक्त गर्व महसूस करते हैं तो इतना ज्ञान क्यों नहीं अर्जित कर सके हैं कि जापानी इंसेफ्लाइटिस जैसे बुखार को शिकस्त दे सकें। भल्लू भाई तो बस्ती के देहाती इलाके में रहते थे, शहरी इलाकों में भी तमाम भल्लू भाई गुजर जा रहे हैं जापानी इंसेफ्लाइटिस से। बस्ती जाते वक्त मैंने एक अखबार में जापानी इंसेफ्लाइटिस से एमबीबीएस स्टूडेंट के मरने की खबर पढ़ी तो सिस्टम की बेचारगी-लाचरगी पर तरस आया।  अगर आजादी के सातवें दशक में  बुखार भी इस कदर जानलेवा होता हो तो आखिर आप कहेंगे भी क्या।
इंसेफ्लाइटिस को लेकर तमाम खबरें मैंने पढ़ी थीं। अब भी पढ़ रहा हूं। आगे से नहीं पढ़ूंगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। दरअसल इस बीमारी को लेकर केंद्र और राज्य सरकार में नूरा कुश्ती चल रही है। यदि ऐसा नहीं होता तो जिला अस्पतालों में ही यह व्यवस्था कर ली गई होती कि बुखार पीड़ितों के खून की जांच से तत्काल यह पता चल जाता कि  अमुक को इंसेफ्लाइटिस हुआ है। जहां कहीं वार्ड बनाए भी गए हैं, वहां हालत बदतर हैं। स्कूली बच्चों को टीका दिए जाने की बात है पर अस्पतालों में जाओ तो टका सा जवाब मिलता है कि नहीं जी, ऐसा तो कुछ नहीं है। ऐसे में आम हिंदुस्तानी कहां जाए। गुलाम नबी आजाद साब, मायावती जी, बताइए।  फिलहाल जो हालात हैं, उसमें रामजी से मेरी यही कामना है कि वह अब उस सड़ियल सिस्टम का भी रामनाम सत्य करने वाला मच्छर बना दें जिसका इलाज कहीं संभव न हो सके। ना न्यूयार्क में ना सिंगापुर में।

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