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लोकपाल और कालेधन के मुद्दे पर चल रही खींचतान में अब तक वही लोग हावी दिखे हैं जिन पर 1.20 अरब से ज्यादा भारतीयों ने अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी डाली है। सारे संकेत यही हैं कि कथित तौर पर जनता के लिए जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधिय़ों की ही अंत में पौ-बारह रहेगी। राजनीति औऱ सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने भी लोकपाल विधेयक पर टीम अन्ना को जिस तरह आधा अधूरा समर्थन दिया है, उससे साफ है कि राजनीतिक दलों में मौसेरा भाईचारा है। देश के कर्णधारों में कोई नहीं चाहता कि व्यवस्था बदले। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी क्या आज इस बात का जवाब दे सकते हैं कि जब एनडीए का शासन था तब लोकपाल संबंधी विधेयक बनाने वाली संसद की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन की हैसियत से उन्होंने प्रधानमंत्री का पद भी क्यों लोकपाल के दायरे में लाने की वकालत की थी। दरअसल इस देश में सौ में से 99 लोग बेईमान हो चले हैं चाहे मजबूरीवश या आदतन। ईमानदारी की परिभाषा अब यह है कि — आप तभी तक ईमानदार हैं जब तक कि आपको बेइमानी का मौका नहीं मिलता। बेइमानी का यह हिमालय कभी नहीं पिघलेगा, चाहे हजारों -लाखों अन्ना हजारे क्यों न हो जाएं। अरे जिस देश में भगवान भी बिना पैसों के प्रसन्न नहीं होते वहां इंसान क्यों होंगे।
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