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प्यार की कहे हम भी -3

sushma's view
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प्यार को कथित तोर पर माँ बहन भाई और रिश्ते दारी से जोड़ देना कहा तक उचित है .हम क्यों नहीं बात कर पाते उस प्यार की जो रग रग में सवेंदना बनकर चलता है .बारिश की बुँदे जिसे अछि लगती है कभी उस्ससे जाकर पूछो की क्या फर्क है नल के पानी में और बारिश के पानी में.शायद वो इसे न समझे जो पानी से ही डर जाते है जो चाहते नहीं की कभी नहाया जाये . .कभी जाकर पूछो उन्हें जिहे हर फूल अच्छे लगते है क्योकि वो हर रंग के हर खुशबु के होते है.क्योकि आज के दुनिया दारी में ये ही कइयो को याद नहीं की फूल भी होते है उन्हें देखना पड़ता है. बागवानी के शोकीनो से पूछो की हरेक पत्ती में क्या नजर आता है. प्यार बात है संवेदना की प्यार बात है कुछ उस अन्जान से अस्तित्व की .जहा हम चाहे कितने विरोधाभास की इस्तिथि रखे .” प्यार है” इसे मानने से इंकार नहीं कर पाते.
वस्तुत: प्यार को कभी भी समझा नहीं गया .उसके बारे में बात तो बहुत होती है पर उसे मानना और सम्मान देने की बात पर लड़ाई और झगड़े की इस्तिथि उत्पन्न हो जाती है ,तो क्या यही प्यार है,और उस प्यार की बात करने की बात.
आप सोच सकते है की क्या अपने समकालीन लैला और मजनू को आज की तरह वो इज्ज़त मिली होगी जो आज हम देते है.आज उस नाम की एक फिल्म लगी नहीं की पिक्चर हॉल हाउस फुल हो जाता है.क्या ????????वास्तव में जब वो होंगे उन्हें इस रूप में स्वीकार कर लिया गया होगा .नहीं न? क्यों ? प्यार नहीं था ? आपकी नजर में नहीं था ? या आपको पता नहीं था? या की फिर आपने ऐसा कर गुजरेंगे ये एहसास नहीं किया था? तो भाई क्या किया था? बात सिर्फ प्यार की ही नहीं करनी क्या हमने भगत सिंह को पूरी आज़ादी दी थी अपनी बात कहने की ? नहीं .क्यों? हम मानते नहीं उस जज्बे को जो हमारे समकालीन होता है.
वो भारत माँ से प्यार हो या फिर लैला का मजनू से प्यार हो .क्यों हमेशा हम उस संवेदना को दबाने की कोशिश करते है क्यों चाहते है एक भी संवेदना का हम साथ न दे पाए. क्यों क्यों क्यों ?आखिर क्यों?
प्यार को हम कमर कसकर ढूंढते है और पूरी जिंदगी प्यार के बिना ही रह जाते है.नहीं हमेशा ऐसा नहीं होता. प्यार सफल भी होता है और प्यार का एक पल भी बहुत कुछ करने की सालो साल हिम्मत दे जाता है . प्यार हमेशा मिलने को ही नहीं कहते .प्यार हमेशा बलिदान को भी नहीं कहते. प्यार का मतलब हमेशा रूहानी आत्मा का मिलन ही नहीं है.प्यार तो तब है जब आप धयान में बैठे हो और आप पूरी तरह एकाग्रचित हो जाये अपने कार्य के प्रति अपने सर्वस्व के प्रति.
प्यार तो तब है जब आपने जो पाना चाह हो और जब आपको वो मिल गया हो आप पूरी तरह समर्पित हो गए हो उसके लिए. मेरे जीवन में कई ऐसे मोंके आये है जब मैंने पाया है कुछ लोग अपने जीविका के साधन के साथ पूरी तरह आत्मीय हो जाते है वो अपने कार्य के प्रति इतने समर्पित हो जाते है कि पता नहीं लगता कार्य उनमे है या वे कार्य में है.
तो क्या ये प्यार कि संवेदना नहीं है. प्यार उस जरा से बच्चे को पूछो जो अपनी नयी सी प्रेमिका को मनाने के लिए बाग से गुलाब का फूल बड़ी मुश्किल से चुरा कर लाता है और ज़माने कि नजर बचा कर चुप छुपकर जब तक वो गुलाब देता है तो उसकी कई पंखुड़िया बिखर जाती है. और उसकी वो प्रेमिका उन बिखरे पंखुडियो को समेट कर बस अपनी मुस्कान दे जाती है. तो कहिये यहाँ विरोध कि क्या आवशयकता है? जब चिड़िया अपना घोसला बनती है तो जरा देखिये कैसे चुन चुन कर तिनके लाती है, वहा अपनी दुल्हन को जो बैठाना है,बच्चो को जो रखना है.तो क्या यहाँ किसी और स्वीकृति कि आवशयकता रह जाती है.
आज बदलता परिवेश है हमने हमेशा वो किया है जो हमारी आत्मा स्वीकार नहीं करती क्यों? आखिर क्यों? हम अपने बनाये हुए निजी स्वार्थो के प्रति इतने समर्पित क्यों हो जाते है की हरेक बातो को हम अपनी इज्ज़त बना लेते है. अपनी इज्ज़त की बात बना लेते है.अपने इज्ज़त की दुहाई देते हुए हम हमेशा ये सिद्ध करने की कोशिश करते है की जो हम कर रहे है वही सही है.
जबकि एक मृत्यु के बाद सभी कुछ सिर्फ थमता ही है. चलता नहीं है फिर क्यों हम झूठे दिखावो को लेकर उस प्यार को नहीं पहचान पाते . मेरा यहाँ ये कहना नहीं है की ,फितुरो को उनकी फितुरई करने दिया जाये पर कुछ एक मामले जो हमसे तय नहीं होते उसमे भी हमारी सही को छोड़कर “उचित ” की और धयान दिया जाये.तो कितना अच्छा रहेगा . हम क्यों हरेक बार किसी की मोंत का इंतजार करे .क्यों न हम अपनी निगाहों को कुछ उस प्यार से सराबोर कर दे की हर प्यार .चाहे वो किसी भी नजर का हो ,उसे आत्मबल मिले ,और वो अपनी एक सही इस्तिथि को स्वीकार करने का पूरा मन बना पाए . चाहे वो पाये या ना पाये.चाहे वो खो दे या अपना बना ले पर उसे संबल मिले आत्मबल मिले सारी दुनिया से.प्यार की हर नजर को पहचान सकने की .
बहुत सी बाते यु ही ख़त्म हो जाया करती है.अड़ जाने से उन बातो का रुख ही मुड जाया करता है. शायद इतनी बड़ी बाते ही ना बने ,यदि किसी भी नजर को उतनी की ही जरुरत हो. कभी कभी कुछ बातो से ही सुकून मिल जाया करता है. अगर उसे किसी ब्रंती से जोड़ा जाये तो बात बिगड़ भी सकती है.

कहना यही है.प्यार हमेशा विरोध के स्वर लेकर नहीं आता .वस्तुत: हम प्यार को विरोध करके और भी जिद्दी और अड़ियल बना देते है. अपना नजरिया अगर हम परख ले तो शायद ऐसी इस्तिथि ही ना बने जहा बात हाथ से निकल जाती है. अस्तु.

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