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तीन तलाक़ के मुद्दे पर विभिन्न TV Channels पर अब तक मैं 20 से ज़्यादा programs देख चुका हूँ। तमाम तलाक़शुदा और मुसीबतज़दा औरतों को दर्दे-दिल,हाले-अज़ाब और मजबूरियों को बयान करते हुए सुना लेकिन मुझे बेइंतिहा पीड़ा और हैरत हुई कि उन programs में हिस्सा ले रहे किसी भी मौलवी,मुल्ले या मुफ़्ती को उन तलाक़शुदा औरतों से कोई हमदर्दी न थी। विपरीत इसके वो तीन तलाक़ को “अल्लाह की रहमत” कह रहे थे। किसी भी औरत के कुछ बोलने पर भड़क जाते थे और बार – बार “क़ुरआन की आड़” लेकर खुद को आलिम और तलाक़शुदा औरतों को कमअक़्ल तथा जाहिल क़रार देते थे।
ये कैसे मौलवी,मुल्ले और मुफ़्ती हैं जो औरतों को ठीक से खुलकर अपनी बात भी नहीं रखने देते और उस पर तुर्रा ये कि इस्लाम ने औरत को सबसे बलन्द मक़ाम अता किया है।यदि इसमें ज़रा भी दम है तो
(1) इस्लाम ने औरत को तीन तलाक़ कहने का अधिकार क्यों नहीं दिया ?
(2) औरतों को सबके साथ मस्जिद में नमाज़ क्यों नहीं अदा करने दिया जाता ?
(3) एक औरत मर्द के साथ College,Hospital,Malls,Theater,Market जा सकती है, उसके साथ हमबिस्तर भी होती है लेकिन नमाज़ अदा नहीं कर सकती। ये कैसी अल्लाह की रहमत और बराबरी का दर्जा है,जिससे औरतों को इस्लाम ने महरूम (deprived) रखा है ?
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