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अष्टछाप (भक्तिरस)

स्वामी श्री हरिदास
स्वामी श्री हरिदास
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महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी एवं उनके पुत्र श्री विट्ठलनाथ  जी द्वारा संस्थापित ८ भक्तिकालीन कवियों का एक समूह था, जिन्होंने अपने विभिन्न पद एवं कीर्तनों के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का गुणगान किया. अष्टछाप की स्थापना १५६५ ई० में हुई थी.

अष्टछाप कवि –

अष्टछाप कवियों के अंतर्गत पुष्टिमार्गीय आचार्य वल्लभ के काव्य कीर्तनकार चार प्रमुख शिष्य तथा उनके पुत्र विट्ठलनाथ के भी चार शिष्य थे। आठों ब्रजभूमि के निवासी थे और श्रीनाथजी के समक्ष गान रचकर गाया करते थे। उनके गीतों के संग्रह को “अष्टछाप” कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ आठ मुद्रायें है। उन्होने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण विषयक भक्तिरसपूर्ण कविताएँ रचीं। उनके बाद सभी कृष्ण भक्त कवि ब्रजभाषा में ही कविता रचने लगे। अष्टछाप के कवि जो हुये हैं, वे इस प्रकार से हैं:-

 

1. कुम्भनदास (1448 ई. -1582 ई)
2. सूरदास  (1478 ई. – 1580 ई.)
3. कृष्णदास  (1495 ई. – 1575 ई.)
4. परमानन्ददास (1491 ई. -1583 ई.)
5. गोविन्ददास  (1505 ई. – 1585 ई.)
6. छीत स्वामी  (1481 ई. – 1585 ई.)
7. नंददास  (1533 ई. – 1586 ई.)
8. चतुर्भुज दास जी (1530 ई

इन कवियों में सूरदास प्रमुख थे। अपनी निश्चल भक्ति के कारण ये लोग भगवान कृष्ण के सखा भी माने जाते थे। परम भागवत होने के कारण यह लोग भगवदीय भी कहे जाते थे। यह सब विभिन्न वर्णों के थे। परमानन्द कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। कृष्णदास शूद्रवर्ण के थे। कुम्भनदास राजपूत थे, लेकिन खेती का काम करते थे.

सूरदासजी किसी के मत से सारस्वत ब्राह्मण थे और किसी किसी के मत से ब्रह्मभट्ट थे। गोविन्ददास सनाढ्य ब्राह्मण थे और छीत स्वामी माथुर चौबे थे। नंददास जी सोरो सूकरक्षेत्र के सनाढ्य ब्राह्मण थे, जो महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी के चचेरे भाई थे। अष्टछाप के भक्तों में बहुत ही उदारता पायी जाती है। “चौरासी वैष्णव की वार्ता” तथा “दो सौ वैष्ण्वन की वार्ता” में इनका जीवनवृत विस्तार से पाया जाता है।।
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जै जै कुँज विहारी     जै जै कुँज विहारी
(श्री राधा विजयते नमः)
(श्री मत् रमण विहारिणे नमः)
●▬▬▬▬▬▬♧ॐ♧▬▬▬▬▬▬●

 

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