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उत्तर प्रदेश चुनाव में बाटला हाउस एनकाउंटर का जिन्न फिर बाहर निकल आया है

SYED ASIFIMAM KAKVI
SYED ASIFIMAM KAKVI
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Syed Asifimam kakvi
joint Scretary
Alrabta Educational
Welfare Trust
उत्तर प्रदेश चुनाव में बाटला हाउस एनकाउंटर का जिन्न फिर बाहर निकल आया है. कानून मंत्री सलमान खुर्शीद आजमगढ़ में वोट मांगने पहुंचे थे, जहां उन्होंने बड़े भावुक अंदाज में लोगों को बताया कि बाटला एनकाउंटर की तस्वीरें देखकर सोनिया गांधी रो पड़ी थी.

सलमान खुर्शीद के मुताबिक, ‘हमने सोनिया गांधी को उस हादसे की तस्‍वीरें दिखाई तो उनके आंसू फूंट पड़े और उन्‍हें हाथ जोड़कर कहा कि यह तस्‍वीरें मुझे मत दिखाओ.
खुर्शीद ने कहा, ‘सोनिया जी ने रोते हुए कहा कि फौर जाओ और वजीर-ए-आजम से बात करो. हमने वजीर-ए-आजम से भी बात की. मामला बहुत आगे तक बढ़ा और यह भी तय हो गया था कि सुप्रीम कोर्ट का रिटायर्ड जज इसकी जांच करेगा. लेकिन उस वक्त चुनाव थे. लोगों का कहना था कि चुनाव में हम इस तरह की चीज़ नहीं कर सकते हैं.’

सलमान खुर्शीद ने यह नहीं बताया कि बाटला एनकाउंटर की तस्वीर देखकर पीएम की क्या हालत हुई थी. लेकिन यह जरुर दावा किया कि कांग्रेस पार्टी भरपूर कोशिश करने के बाद भी बाटला एनकाउंटर में मारे गए आजमगढ़ के लड़कों को इंसाफ नहीं दिला पाई थी.
कानून मंत्री के मुताबिक, ‘कभी-कभी अदालत के फैसले हमारे हक में नहीं आ पाते. फैसले ऐसे आते हैं कि हम समझ भी नहीं पाते हैं.’
लाख टके का सवाल है कि इस एनकाउंटर को लेकर सरकार के मंत्री अलग-अलग दावे क्यों कर रहे हैं. आखिर उनका क्या मकसद है? क्यों आजमगढ़ पहुंचते ही बाटला एनकाउंटर का जिन्न बाहर निकल आता है.

बेहतर होता कि कांग्रेस चुनावी मौसम में इस मुद्दे को उठाने से पहले इन सवालों का जवाब तलाश लेती. वैसे भी विपक्ष बाटला एनकाउंटर को लेकर उसकी नीति और नीयत पर पहले से सवाल खड़े कर रहा है.

गौरतलब है कि सलमान खुर्शीद से पहले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी बाटला एनकाउंटर को फर्जी बताते आए हैं. लेकिन खास बात है कि गृहमंत्री पी चिदंबरम को उस एनकाउंटर में कुछ भी गलत नहीं दिखाई देता है
राहुल गांधी भी मुसलमानों का समर्थन जुटाने की जद्दोजहद में खुलकर कूद गए हैं। उन्होंने अपने घर पर यूपी और दिल्ली से प्रकाशित होने वाले उर्दू अखबारों के संपादकों को बुलाय और कहा कि शासन-प्रशासन में मुस्लिमों की उचित भागीदारी न होने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिम्मेदार है। राहुल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आंदोलन को पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह की तरह संघ की साजिश करार दे दिया। राहुल ने कहा कि संघ ने अपने मोहरे विभिन्न जगहों पर फिट कर रखे हैं जो मुस्लिम समुदाय की राह में रोड़े अटकाते हैं। उन्होंने इस बात पर भी खेद व्यक्त किया कि सांप्रदायिक मानसिकता वाले बहुत से अफसर इस बात को मानने से इंकार करते हैं कि जेलों में कुछ निर्दोष मुस्लिम युवकों को बंद किया गया है.यह सब एन चुनाव के वक़्त इसलिए हो रहा है क्यों कि अब प्रदेश का मुस्लिम युवा लोकसभा चुनाव में मुस्लिम वोट अपनी ताकत दिखा चुका है। कल्याण सिंह से दोस्ती के चलते नाराज मुसलमानों ने कांग्रेस का साथ क्या दिया, यूपी में कांग्रेस फर्श से अर्श पर पहुंच गई। यही वजह है कि हर सियासी दल अब इस 19 फीसदी वोट बैंक के आगे झोली फैलाए खड़ा है| 

पुलिस की तानाशाही व्यवस्था और सरकार को गुमराह करने वाली पुलिसिया नीति आखि़र कहीं-न-कहीं बहुत से ऐसे कार्यों को अंज़ाम देती है, जिससे न्यायिक व्यवस्था शर्मशार जरूर होती होगी। इसी पुलिसिया नीति ने बहुत-सी फर्जी मुठभेड़ों को भी अंज़ाम दिया है। ‘‘राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार विगत 17 वर्षों में कुल 1224 फर्जी मुठभेड़ हुई हैं।’’ इनमें सबसे ऊपर उत्तर प्रदेश, फिर बिहार, आंध्र प्रदेश और उसके बाद महराष्ट्र तथा सबसे नीचे गुजरात है।

वैसे तो देश में बहुत सारी फर्जी मुठभेड़ हुई हैं, जिनमें बाटला हाउस भी उल्लेखनीय है। बाटला हाउस मुठभेड़ कांड को लगभग 3 वर्ष बीत चुका है। ‘‘बाटला हाउस मुठभेड़ में पुलिस ने 19 सितंबर, 2008 को जामिया नगर के बाटला हाउस में रह रहे आजमगढ़ के आतिफ़ अमीन (24 वर्ष) और मुहम्मद साजि़द (17 वर्ष) को गोलियों से भून दिया था। इस घटना को सरकारी दस्तावेज भी प्रमाणित करते हैं।’’

सरकार और पुलिस मारे गए दोनों बच्चों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट न देने के विभिन्न हथकंडे अपनाती रही। उनका मानता था कि इससे आतंकवादियों को सहयोग मिलेगा और पुलिस का मनोबल भी गिरेगा। दूसरी मानवाधिकार संरक्षण के लिए बनायी गई राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का चरित्र भी खुलकर सामने आया। पहले तो मानवाधिकार आयोग ने अपनी जांच रिपोर्ट में एनकाउंटर को क्लीन चिट दे दी थी।
जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र अफरोज़ आलम साहिल ने इस तथाकथित मुठभेड़ से संबंधित विभिन्न दस्तावेज़ पाने के लिए सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत लगातार विभिन्न सरकारी एवं ग़ैर सरकारी कार्यालयों के दरवाज़े खटखटाए, किंतु पोस्टमार्टम रिपोर्ट पाने में उन्हें डेढ़ वर्ष लगे थे. अफरोज़ आलम ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से उन दस्तावेज़ों की मांग की थी, जिनके आधार पर जुलाई 2009 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी थी. मालूम हो कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में दिल्ली पुलिस को क्लीन चिट देते हुए उसका यह तर्क मान लिया था कि उसने गोलियां अपने बचाव में चलाई थीं.राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा भेजे गए दस्तावेज़ों में पोस्टमार्टम रिपोर्ट, पुलिस द्वारा आयोग एवं सरकार के समक्ष दाख़िल किए गए विभिन्न काग़ज़ातों के अलावा ख़ुद आयोग की अपनी रिपोर्ट भी है. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, आतिफ अमीन (24 वर्ष) की मौत तेज़ दर्द से हुई और मुहम्मद साजिद (17 वर्ष) की मौत सिर में गोली लगने के कारण हुई. जबकि इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा की मृत्यु का कारण गोली से पेट में हुए घाव से ख़ून का ज़्यादा बहना बताया गया है. रिपोर्ट के अनुसार, तीनों (आतिफ, साजिद एवं मोहन चंद्र शर्मा) को जो घाव लगे हैं, वे मृत्यु से पूर्व के हैं. रिपोर्ट के अनुसार, मोहम्मद आतिफ अमीन के शरीर पर 21 घाव हैं, जिनमें से 20 गोलियों के हैं. आतिफ को कुल 10 गोलियां लगीं और सारी गोलियां पीछे से मारी गईं. आठ गोलियां पीठ पर, एक दाईं बाजू पर पीछे से और एक बाईं जांघ पर नीचे से. 2×1 सेमी का एक घाव आतिफ के दाएं पैर के घुटनों पर है. यह घाव किसी धारदार चीज़ या रगड़ लगने से हुआ. इसके अलावा रिपोर्ट में आतिफ की पीठ और शरीर पर कई जगह छीलन है, जबकि जख्म नंबर 20 जो बाएं कूल्हे के पास है, से धातु का एक 3 सेमी का टुकड़ा मिला है.मोहम्मद साजिद के शरीर पर कुल 14 घाव हैं. साजिद को कुल 5 गोलियां लगीं और उनसे 12 घाव हुए. इनमें से तीन गोलियां दाहिनी पेशानी के ऊपर, एक गोली पीठ पर बाईं ओर और एक गोली दाएं कंधे पर लगी. मोहम्मद साजिद को लगने वाली तमाम गोलियां नीचे की ओर निकली हैं, जैसे एक गोली जबड़े के नीचे से (ठोड़ी और गर्दन के बीच), सिर के पिछले हिस्से से और सीने से. साजिद के शरीर से धातु के दो टुकड़े मिलने का रिपोर्ट में उल्लेख है, जिसमें से एक का साइज़ 8×1 सेमी है, जबकि दूसरा पीठ पर लगे घाव (जीएसडब्ल्यू-7) से टीशर्ट से मिला है. इस घाव के पास 5×1.5 सेमी लंबा खाल छिलने का निशान है. पीठ पर बीच में लाल रंग की 4×2 सेमी की खराश है. इसके अलावा दाहिने पैर में सामने (घुटने से नीचे) की ओर 3.5×2 सेमी का गहरा घाव है. इन दोनों घावों के बारे में रिपोर्ट का कहना है कि ये घाव गोली के नहीं हैं. साजिद को लगे कुल 14 घावों में से सात को बहुत गहरा कहा गया है.इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा के बारे में रिपोर्ट का कहना है कि बाएं कंधे से 10 सेमी नीचे घाव के बाहरी हिस्से की सफाई की गई थी. शर्मा को 19 सितंबर 2008 को एल-18 में घायल होने के बाद निकटतम अस्पताल होली फैमिली में भर्ती कराया गया था. उन्हें कंधे के अलावा पेट में भी गोली लगी थी. रिपोर्ट के अनुसार, पेट में गोली लगने से ख़ून ज़्यादा बह गया और यही मौत का कारण बना. मुठभेड़ के बाद यह प्रश्न उठाया गया था कि जब शर्मा को 10 मिनट के अंदर डॉक्टरी सहायता मिल गई थी और संवेदनशील जगह पर गोली भी नहीं लगी थी, तो फिर उनकी मौत कैसे हो गई? यह भी प्रश्न उठाया गया था कि शर्मा को गोली किस तऱफ से लगी, आगे से या पीछे से? यह भी कहा जा रहा था कि शर्मा पुलिस की गोली का शिकार हुए हैं, किंतु पोस्टमार्टम रिपोर्ट इसकी व्याख्या नहीं कर पा रही है, क्योंकि होली फैमिली अस्पताल जहां उन्हें पहले लाया गया था और बाद में वहीं उनकी मौत भी हुई, में उनके घावों की सफाई की गई. लिहाज़ा पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर यह नहीं बता सके कि यह गोली के घुसने की जगह है या निकलने की. दूसरा कारण यह है कि शर्मा को एम्स में सफेद सूती कपड़े में ले जाया गया था और उनके घाव उसी से ढके हुए थे. रिपोर्ट में लिखा है कि जांच अधिकारी से निवेदन किया गया था कि वह शर्मा के कपड़े लैब में लाएं. मालूम हो कि शर्मा का पोस्टमार्टम 20 सितंबर 2008 को 12 बजे दिन में किया गया था और उसी समय यह रिपोर्ट भी तैयार की गई थी.मोहम्मद आतिफ अमीन को लगभग सारी गोलियां पीछे से लगीं. आठ गोलियां पीठ में लगकर सीने से निकली हैं. एक गोली दाहिने हाथ पर पीछे से बाहर की ओर से लगी, जबकि एक गोली बाईं जांघ पर लगी. और, यह गोली हैरतअंगेज तौर पर ऊपर की ओर जाकर बाएं कूल्हे के पास निकली. पुलिस ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट के संबंध में प्रकाशित समाचारों और उठाए जाने वाले प्रश्नों का उत्तर देते हुए यह तर्क दिया कि आतिफ गोलियां चलाते हुए भागने का प्रयास कर रहा था और उसे मालूम नहीं था कि फ्लैट में कुल कितने लोग हैं, इसलिए क्रॉस फायरिंग में उसे पीछे से गोलियां लगीं. लेकिन, मुठभेड़ या क्रॉस फायरिंग में कोई गोली जांघ में लगकर कूल्हे की ओर कैसे निकल सकती है. आतिफ के दाहिने पैर के घुटने में 1.5×1 सेमी का जो घाव है, उसके बारे में पुलिस का कहना है कि वह गोली चलाते हुए गिर गया था. पीठ में गोलियां लगने से घुटने के बल गिरना तो समझ में आ सकता है, किंतु विशेषज्ञ इस बात पर हैरान हैं कि फिर आतिफ की पीठ की खाल इतनी बुरी तरह कैसे उधड़ गई? पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, आतिफ के दाहिने कूल्हे पर 6 से 7 सेमी के भीतर कई जगह रगड़ के निशान भी पाए गए.साजिद के बारे में भी पुलिस का कहना है कि साजिद एक गोली लगने के बाद गिर गया था और वह क्रॉस फायरिंग के बीच आ गया. इस तर्क को गुमराह करने के अलावा और क्या कहा जा सकता है. साजिद को जहां गोलियां लगी हैं, उनमें से तीन पेशानी से नीचे की ओर आती हैं. जिसमें से एक गोली ठोड़ी और गर्दन के बीच जबड़े से भी निकली है. साजिद के दाहिने कंधे पर जो गोली मारी गई, वह बिल्कुल सीधे नीचे की ओर आई है. गोलियों के इन निशानों के बारे में पहले ही स्वतंत्र फोरेंसिक विशेषज्ञ का कहना था कि या तो साजिद को बैठने के लिए मजबूर किया गया या फिर गोली चलाने वाला ऊंचाई पर था. ज़ाहिर है, दूसरी सूरत उस फ्लैट में संभव नहीं है. दूसरे यह कि क्रॉस फायरिंग तो आमने-सामने होती है, न कि ऊपर से नीचे की ओर.साजिद के पैर के घाव के बारे में रिपोर्ट में कहा गया है कि यह किसी ग़ैर धारदार वस्तु से लगा है. पुलिस इसका कारण गोली लगने के बाद गिरना बता रही है, लेकिन 3.5×2 सेमी का गहरा घाव फर्श पर गिरने से कैसे आ सकता है? पोस्टमार्टम रिपोर्ट से इस आरोप की पुष्टि होती है कि आतिफ एवं साजिद के साथ मारपीट की गई थी. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आदेशानुसार इस प्रकार के मामलों में पोस्टमार्टम की वीडियोग्राफी भी पोस्टमार्टम रिपोर्ट के साथ आयोग के कार्यालय भेजी जाए, लेकिन मोहन चंद्र शर्मा की रिपोर्ट में केवल यह लिखा है कि घावों की फोटो पर आधारित सीडी संबंधित जांच अधिकारी के सुपुर्द की गई. बाटला हाउस की घटना के बाद सरकार, कार्यपालिका और मीडिया ने जो भूमिका अदा की, वह न केवल आश्चर्यजनक है, बल्कि इससे देश के मुसलमानों एवं अन्य लोगों के मन में यह प्रश्न है कि आख़िर सरकार इस मामले की न्यायिक जांच से क्यों कतरा रही है? न्यायिक जांच के लिए जज भी सरकार ही नियुक्त करेगी.वर्ष 2008 में होने वाले सीरियल धमाकों के बारे में विभिन्न राय पाई जाती हैं. कुछ लोग इन तमाम घटनाओं को हेडली की भारत यात्रा से जोड़कर देखते हैं. जबकि भारतीय जनता पार्टी की नेता सुषमा स्वराज ने अहमदाबाद धमाकों के बाद मीडिया से कहा था कि यह सब कांग्रेस करा रही है, क्योंकि न्युक्लियर समझौते के मुद्दे पर लोकसभा में नोट की गड्डियां पहुंचने से वह परेशान है और जनता के जेहन को मोड़ना चाहती है. समाजवादी पार्टी से निष्कासित सांसद अमर सिंह के अनुसार, सोनिया गांधी बाटला हाउस मामले की जांच कराना चाहती थीं, लेकिन किसी कारण वह ऐसा नहीं कर सकीं, पर उन्होंने इसका खुलासा नहीं किया किवह कारण क्या है?बाटला हाउस मामले की न्यायिक जांच की मांग केंद्रीय सरकार के अलावा अदालत भी नकार चुकी है. सबका यही तर्क है कि इससे पुलिस का मनोबल गिरेगा. केंद्रीय सरकार और अदालत जब इस तर्क द्वारा जांच की मांग ठुकरा रही थी,
मानवाधिकार आयोग पहले इस कांड को सही बता रही थी, परंतु अपनी रिपोर्ट के बाद उसने माना कि बाटला हाउस का एनकाउंटर फर्जी था। यह खुलासा खुद आयोग की उस लिस्ट से हुआ था, जिसमें पिछले सोलह साल के दौरान हुए फर्जी मुठभेड़ों की चर्चा की गई थी। सूचना कानून के तहत मानवाधिकार आयोग ने दिल्ली के अफ़रोज आलम को 50 पन्नों की लिस्ट उपलब्ध कराई थी।

इस सूची में 1224 फर्जी मुठभेड़ का विवरण दिया गया था। ‘‘फर्जी मुठभेड़ की इसी सूची के एल-18 पर बाटला हाउस कांड भी शामिल है। जारी रिपोर्ट के अनुसार सबसे ज्यादा फर्जी एनकाउंटर उत्तर प्रदेश में हुए इस अवधि के दौरान यहां पर 716 फर्जी पुलिस मुठभेड़ हुए हैं।’‘

बाटला हाउस और इस जैसी सभी मुठभेड़ों को लेकर मीडिया ने भी अपनी तीखी प्रतिक्रिया दिखाई है। समचारपत्रों व न्यूज़ चैनलों ने बाटला हाउस की पूरी रिपोर्टिंग की और आम जनता के समक्ष पुलिस द्वारा किए गए फर्जी मुठभेड़ों को बखूबी रखा। मानवाधिकार के हनन पर कौन सरकार के विपक्ष में खड़ा हो? हालांकि, कुछ मीडिया सरकार के साथ खड़ा होकर मनमाफि़क परिभाषा गढ़ने लगा। रिपोर्टर की पहली टिप्पणी, फर्जी एनकाउंटर को कहने या इस तथ्य को टटोलने की जहमत, कौन करे? यह सवाल मीडिया के समक्ष भी खड़ा हुआ।

बाटला हाउस जैसी बहुत सारी मुठभेड़ों को मीडिया ने प्रसारित किया है। ‘‘15 जून, 2004 को अहम्दाबाद के रिपोर्टर ने ब्रेकिंग न्यूज़ की यह ख़बर प्रसारित की कि गुजरात ने एनकाउंटर में एक लड़की को मार गिराया है। मीडिया ने इसे फर्जी एनकाउंटर बताया।’’ एक अन्य उदाहरणस्वरूप गुजरात में फर्जी मुठभेड़ में दिनांक 22 नवंबर, 2005 को सोहराबुद्दीन को पुलिस ने गोली से मार दिया था।

सरकार का कहना था कि वह मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को मारने आया था। उसे लश्करे-तोयबा नामक आंतकवादी संगठन का कार्यकत्र्ता बताया गया था। इस ख़बरें को समाचारपत्रों में जगह मिली। इसी क्रम में मीडिया के सभी चैनलों ने देहरादून के रणवीर नामक एक युवक की मुठभेड़ में मौत की ख़बर का प्रसारण किया। संबंधित ख़बर के प्रसारण के बाद काफी हो-हल्ला हुआ। और, इसकी जांच सी.बी.आई. को सौंपी गई। सी.बी.आई. और एस.आई.टी. दोनों ने अपनी जांच-पड़ताल के बाद इसे फर्जी मुठभेड़ कहा। सी.बी.आई. ने 18 पुलिस वालों को फर्जी मुठभेड़ में दोषी माना।

इन सब फर्जी मुठभेड़ों में मीडिया ने अहम् भूमिका निभाई है। परंतु मीडिया ने बहुत-सी ऐसी ख़बरों को भी प्रकाशित किया है, जिससे बहुत-से लोगों का जीना मुश्किल तक हो गया है। यह कहना सही है कि मरने वाला अकेला नहीं मरता, उसके साथ बहुत सारी जिंदगी ताउम्र तिल-तिलकर मरती हैं। यदि यह मौत असमय हो, तो तकलीफ़ और बढ़ जाती है।

फर्जी मुठभेड़ के मामले भी कुछ ऐसे ही हैं। हर एक मुठभेड़ के बाद पुलिस जोर-शोर से इसे सही साबित करने की कोशिश करती है, तो कुछेक मानवाधिकार संगठन मुठभेड़ की सत्यता की जांच को लेकर हंगामा मचाते हैं। लेकिन, फिर पुलिस ऐसी ही कोई दूसरी कहानी प्रायः दोहरा देती है।

मीडिया और मानवाधिकार आयोग को चाहिए कि सभी मुठभेड़ों में मारे गए लोगों की पोस्टमार्टम की वीडियोग्राफी करवायें। साथ ही रिपोर्ट को आयोग व मीडिया में प्रकाशित भी किया जाए, ताकि हकीकत सभी के सामने आ सके। इस आलोक में सरकार की अहम् भूमिका अपेक्षित है, ताकि मानवाधिकार का हनन न हो तथा साथ-साथ पीडि़तों को न्याय और दोषियों को सज़ा भी मिले सके।
एनकाउंटर! इस एक शब्द ने दिल्ली के जामिया नगर की राजनीति ही बदल दी है। उस एनकाउंटर की यादें आज भी यहां के लोगों के दिलो-दिमाग में ताजा हैं। उस दिन जामिया नगर ही नहीं मानो पूरा देश बंट गया था। एनकाउंटर पर जमकर राजनीति हुई।

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