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क्या बदलेगा मुस्लिम समाज,

SYED ASIFIMAM KAKVI
SYED ASIFIMAM KAKVI
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Syed Asifimam kakvi
joint secretary
Alrabta Educational Welfare Trust

क्या बदलेगा मुस्लिम समाज, वो समाज कभी नहीं बदल सकता। जिसमें बदलें की चाह और अहसास ही ना हो। बड़ी मशहुर कहावत है। कि ” सो ते को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जो जागता हो उससे कैसे जगाया जा सकता है” मुस्लिम समाज के दीनी रहनुमाओं ने मुस्लमानों को कुछ ऐसा ही बना दिया है। उन्हें मौत के बाद की जिन्दगी के सब्ज बाग दिखाकर, उनकी मौजुदा जिन्दगी का ही नक्शा बदल दिया है।विकास को भूल रहे हैं। नबी-ए-करीम हजरत मोहम्मद (सलव) ने फरमाया था- कि आपको शिक्षा यानि तालीम पाने के लिए चाहे चीन क्यों न जाने पढ़े। कुरआन-पाक और हजुर-ए-पाक ने यह कभी नहीं फरमाया कि मुस्लमान डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफसर, वैज्ञानिक इत्यादि न बन सकता। लेकिन वो बनेगे कब जब उनको ऐसा करने के लिए प्रेरित किया जाऐगा और वातावरण बनाया जाए। वो कौन कर सकते हैं वो डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफसर, वैज्ञानिक और उसकी अमियत समझने वाले या फिर सही मायनो में मुस्लिम कौम के दर्द को समझने वाला। कोई और दुसरा नहीं।
धर्मनिरपेक्ष सरकार और तमाम संवैधानिक अधिकारों के होने के बावजूद मुसलमानों को समय-समय पर मुसलमान होने की क़ीमत चुकानी पड़ती है, जिसकी तऱफ शायद ही किसी का ध्यान जाता है. खास तौर पर वे नौकरशाही और सुरक्षा एजेंसियों की सांप्रदायिक सोच का सबसे बड़ा शिकार हैं. बिना अपराध के उन्हें अपनी बेगुनाही साबित करनी पड़ती है. जब भी कहीं सांप्रदायिक दंगे या आतंकी घटना होती है, पूरे मुस्लिम समुदाय पर ख़ौ़फ तारी हो जाता है. पुलिसिया धरपकड़ का पहला निशाना मुसलमान होते हैं और बिना समुचित जांच-पड़ताल के गिरफ़्तारियां होने लगती हैं.आज अगर हिंदुस्तानी मुसलमान मुल्क की मुख्यधारा में कहीं नज़र नहीं आता, तो उसके पीछे बकायदा एक सोची-समझी साजिश रही है.आज़ादी मिलने के शुरुआती 25-30 सालों में बमुश्किल उन्हें सरकारी नौकरियों में जगह मिली. मुसलमानों पर अविश्वास और उन्हें शक की निगाह से देखा जाना एक बड़ी वजह रही, जिसके चलते वे शुरुआत से ही तऱक्क़ी की दौड़ में पिछड़ते चले गए. जैसे-तैसे यह यक़ीन बहाल हुआ. मुसलमानों ने मुख्यधारा में आने की कोशिश की, मगर देश में होने वाला हर सांप्रदायिक दंगा उन्हें पीछे की ओर धकेल देता. दंगों की आंच से मुसलमानों के रोज़गार सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए. दंगों की ज़्यादातर वजह मजहबी बताई जाती है, जबकि उनके पीछे आर्थिक वजहें ज़्यादा काम करती हैं.आज से 63 साल पहले संविधान बनाते व़क्त हमारे देश के कर्णधारों ने भले ही किसी के साथ मजहब, जाति, संप्रदाय, नस्ल और लिंग के आधार पर कोई फर्क़ न करने का ऐलान किया हो, मगर आज हक़ीक़त इसके उलट है. खास तौर पर मुसलमानों के साथ यह भेदभाव हर मामले में दिखाई देता है. मुस्लिम समुदाय शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक सुरक्षा और सार्वजनिक क्षेत्र आदि में बहुसंख्यक समाज से काफी पीछे है. अलबत्ता, संविधान के तहत समानता का हक़ उसे भी हासिल है.अभी हाल में आया सर्वे देश में मुसलमानों के बदतरीन हालात को बयां करता है. सर्वे के मुताबिक़, देश में हर 10 में से 3 मुस्लिम ग़रीबी रेखा से नीचे ज़िंदगी गुजर-बसर कर रहे हैं. उनकी मासिक आय 550 रुपये से भी कम है. रिपोर्ट बताती है कि 31 फीसदी मुस्लिम ग़रीबी रेखा के नीचे हैं. बावजूद इसके मुल्क के हुक्मरानों को कहीं भी भेदभाव नज़र नहीं आता.1980 में गोपाल सिंह कमेटी और बाद में सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्टों में मुसलमानों की तस्वीर बहुत हद तक नज़र आई है. मुसलमानों के समग्र विकास के लिए सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सरकार से कई स़िफारिशें की थीं.इसके अलावा यूपीए सरकार ने ऐलान किया था कि चिन्हित किए गए 90 अल्पसंख्यक आबादी बाहुल्य ज़िलों, जो विकासात्मक मापदंडों पर पिछड़े हुए हैं,
सरकार ने क़रीब 40 हज़ार करोड़ रुपए का बजट दिया है। लेकिन उन पर अमल नहीं हो पा रहा है। अमल हो जाए तो मुसलमानों की आने वाली नस्लों की तक़दीर संवर जाए। जमहूरियत में ताक़त दिखा कर ही अपने हक़ में फ़ैसले कराए जाते हैं। लेकिन अपनी ताक़त दिखाने में मुसलमान सबसे पीछे है। मुट्ठी भर गुर्जर और जाट जब चाहते हैं सड़कों और रेल की पटरियों पर बैठ कर जिस सरकार को चाहते है झुका देते हैं। अण्णा हज़ारे और बाबा रामदेव नें चंद लाख लोग इकट्ठे किए और यूपीए सरकार की चूलें हिला दीं। लेकिन धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले मुसलमान जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफ़ारिशें लागू कराने की मांग करने के लिए एक दिन के लिए दिल्ली के रामलीला मैदान या जंतर मंतर पर नहीं आ सकते। क्योंकि इन्हें अपनी आने वाली नस्लों के विकास से कोई मतलब नहीं है इन्हें तो बस अपने लिए जन्नत में जगह और ढेर सारा सवाब चाहिए।दरअसल, धार्मिक रहनुमाओं ने मुसलमानों को घुट्टी पिला रखी है कि ये दुनिया फ़ानी है। इसके बाद यानि मरने के बाद आख़िरत की ज़िंदगी शुरू होगी जो कभी ख़त्म नहीं होगी। दुनिया को छोड़ कर बस उसी के लिए काम करो। मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबक़ा इसी बहकावे में आकर दुनिया और दुनियीदारी की अपनी तमाम ज़िम्मेदारियां भुला बैठा है। ये तबक़ा तालीम की कमी और ना समझी में धार्मिक रहनुमाओं का एजेंड़ा पूरा करने में जुटा हुआ है।यही वे वजहें हैं, जिनके चलते मुसलमान चाह कर भी मुख्य धारा में नहीं आ पा रहे हैं. मुसलमान मुख्यधारा में आएं, इसके लिए सरकार को अतिरिक्त कोशिशें करनी होंगी. सबसे पहले सच्चर कमेटी एवं रंगनाथ मिश्र आयोग के तमाम सुझावों और स़िफारिशों को ईमानदारी से अमल में लाना होगा. नौकरशाही में व्याप्त सांप्रदायिक पूर्वाग्रह और उदासीनता दूर करने के विशेष प्रयास करने होंगे. मुसलमानों के शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक उत्थान से न स़िर्फ इस समुदाय की हालत सुधरेगी, बल्कि देश का भी समुचित विकास होगा. तमाम आयोगों-कमेटियों के गठन के पीछे सरकार की हमेशा यही मंशा रही है कि मुसलमानों का विकास किया जाए और उन्हें देश की मुख्यधारा से जोड़ा जाए. दरअसल, सवाल हाशिए पर रहे समाज को आगे बढ़ाने का भी है. उपेक्षित तबकों की न्यायोचित आकांक्षाओं-मांगों की अनदेखी भला कब तक की जा सकती है. सामाजिक न्याय सभी जगह ज़रूरी है. न्याय होगा तो मुसलमानों के विकास में भी झलकेगा. ज़ाहिर है, मुस्लिम समुदाय का विकास देश के विकास से अलग नहीं है”अज़ीज़ो सितारे टूट गए तो क्या हुआ सूरज तो चमक रहा है | उससे किरणे मांग लो और उन अँधेरी राहों में बिछा दो जहा उजाले की सख्त ज़रुरत है | आओ वादा करें कि ये मुल्क हमारा है | हम इसके लिए है, और इस की तकदीर के बुनियादी फैसले हमारी आवाज़ के बगैर अधूरे ही रहेंगे|

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