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मुसलमानों का महत्त्व बस वोट तक ही

SYED ASIFIMAM KAKVI
SYED ASIFIMAM KAKVI
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Syed Asifimam Kakvi

07/02/2012

इस देश में राजपूत मुख्यमंत्री बन सकता है, ब्राह्मण मुख्यमंत्री बन सकता है, भुमिहार, पिछड़ा, दलित, जाट, गुर्जर मुख्यमंत्री बन सकता है लेकिन मुसलमान मुख्यमंत्री नहीं बन सकता है। मुसलमानों को कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक के नाम पर जितना छला है उतना तो शायद ही किसी दल ने छला होगा। कांग्रेस के शासनकाल में सांप्रदायिक दंगों का इतिाहस रहा है। बाबरी मस्जिद मामले पर ही कांग्रेस ने जो खेल खेला वह किसी से ढका-छुपा नहीं है। कांग्रेस के दो प्रधानमंत्रियों ने बाबरी मस्जिद की शहादत में बड़ी भूमिका निभाई। राजीव गांधी ने ताला खुलवाया और शिलान्यास करवाया तो नरसिंहराव ने भाजपा के साथ मिल कर मस्जिद को गिराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन सबके बावजूद वह अपनी धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते हुए नहीं थकती है और ख़ुद को मुसलमानों का सबसे बड़ा हमदर्द बताती है। लेकिन कोई बताए कि कांग्रेस के शासनकाल में मुसलमानों का कितना भला हुआ है।
पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उर्दू अख़बारों में विज्ञापन देकर कहा था कि कांग्रेस ही अल्पसंख्यकों की हिफ़ाज़त कर सकती है और फ़िरक़ापरस्ती को शिकस्त दे सकती है। विज्ञापन में यह भी कहा गया था कि कांग्रेस ने ही धर्मरिपेक्ष उसूलों पर अमल कर मुल्क के अक़लियतों के हक़ूक़ को महफ़ूज़ रखा। कांग्रेस के इस विज्ञापन से मुसलमानों पर एहसान करने की बू आती है। एक दूसरे विज्ञापन में कहा गया था कि कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में सरकारी नौकरियों में अक़लियतों की नुमाइंदगी बढ़ी है और अल्पसंख्यक बहुल देश के नब्बे जिलों में विकास के लिए विशेष पैकेज दिए गए हैं। इतना ही नहीं अक़लियतों के लिए आर्थिक हद भी मुक़रर्र किए गए हैं। लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कांग्रेस के इन विज्ञापनों की पोल खोलती है। हद तो यह है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद भी कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार ने अब तक कुछ भी ऐसा नहीं किया जो मुसलमानों के हितों की रक्षा कर सके। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता का आलम तो यह है कि मुंबई दंगों को लेकर बनी श्रीकृष्ण रिपोर्ट तक को वह दबाए बैठी है जबकि महाराष्ट्र में कथित धर्मनिरपेक्ष सरकार तीसरी बार सत्ता में लौटी है।
कांग्रेस के इन विज्ञापनों का सच तो देश के मुसलमानों के हालात हैं। कांग्रेस के कतिथ धर्मनिरपेक्षता को लेकर मुसलमानों के दिल में किसी तरह का संशय अब नहीं हैं। सच तो यह है कि कांग्रेस ने अक़लियतों के मज़हबी पहचान पर हमेशा फ़िरक़ापरस्ती की तलवार लटकाए रखी और उनकी संस्कृति, सभ्यता और विरासत, मज़हब और तालीमी इदारों पर हमले करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस ने मुसलमानों को बेतरह परेशान किया ताकि वे तालीमी और आर्थिक मसलों पर शिद्दत के साथ तवज्जो नहीं दे सकें और सोची समझी साज़िश के तहत ही हमेशा उन्हें जज्बाती मसलों में उलझाए रखा। साथ ही असुरक्षा की भावना को भी उनके अंदर ज़िंदा रखा ताकि वे बिना सोच-विचार के कांग्रेस को वोट देते रहें। यही खेल बाद में बिहार में लालू यादव ने खेला।UP में अपने खोए जनाधार को पाने के लिए फिर से मुसलमान-मुसलमान खेलने में लग गई है।
दरअसल सियासी दलों के लिए मुसलमानों का महत्त्व बस वोट तक ही होता है। चुनाव जब तक नहीं होते, तब तक उन्हें पुचकारा जाता है लेकिन चुनाव खत्म होते ही फिर से उन्हें इसी दुनिया में जीने के लिए छोड़ दिया जाता है। दरअसल सियासत की मंडी में मुसलमानों को ख़रीदने-बेचने का काम यों तो चलता ही रहता है, लकिन चुनाव के वक्त तिजारत का काम और तेज हो जाता है। तरह-तरह के ताजिर, अलग-अलग पर्टियों के झंडे-डंडे उठाए आते हैं और मुसलमानों का सौदा करके चलते बनते हैं। हैरत इस बात पर ज्यादा होती है कि मुसलमानों को पता भी नहीं चलता और उनका सौदा कर लिया जाता है। वोटों के ये सौदागर आज़ादी के बाद से ही धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक के नाम पर मुसलमानों का सौदा करते आ रहे हैं। वोटों की तिजारत अब बढ़ गई है क्योंकि पार्टियां भी बढ़ गई हैं और मंडियां भी। क्योंकि विधानसभा चुनाव है और चुनाव में मुसलमानों का वोट उन्हें चाहिए। समीकरण में मुसलमान हाशिए पर ही रहे और ‘मेरा’ ही मान कर मुसलमानों को ठगते रहे। उन्होंने मुसलमानों को दहशतजदा कर उनका खूब शोषण किया। ‘शोले’ फिल्म का एक प्रचलित संवाद याद आता है-‘यहां से पचास-पचास कोस दूर गांव में जब बच्चा रात में रोता है तो मां कहती है बेटा सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा’, ठीक इसी तजर् पर मुसलमानों को धमकाते रहे ‘हमें वोट दो नहीं तो भाजपा आजाएगी।’ दंगों की आग में झुलसा, लुटा-पिटा बेचारा मुसलमान इस संवाद के चक्कर में लगातार उन्हें वोट करता रहा और बदले में उनका खूब शोषण किया। अपने कार्यकाल में मुसलमानों की आर्थिक व तालीमी हालात को सुधारने के लिए किसी तरह की पहल नहीं की।

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