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मुसलमानों की तालीमी सूरतेहाल

SYED ASIFIMAM KAKVI
SYED ASIFIMAM KAKVI
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Syed Asifimam kakvi
Joint secretary
Alrabta Educational
Welfare Trust
अब्दुल कलाम, हामिद अंसारी, अमजद अली खान, ज़ाकीर हुसैन, शाहरूख खान, शबाना आजमी और इन जैसे कई नाम हैं जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अपना एक ख़ास मुकाम बनाया है। मुस्लिम कौम से तअल्लुक रखने वाले ये लोग समाज में हर किसी के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। लेकिन क्या अल्पसंख्य कही जाने वाली इस कौम में आम लोग इस उचाई तक पहुंच पाने में सक्षम हैं? शायद नहीं, क्योंकि ज़मीनी स्तर पर जो सच्चाई है वह कुछ और ही तस्वीर बयां करती है।

कहने को तो भारत मुस्लिम आबादी के हिसाब से विश्व का तीसरा सबसे बड़ा देश है, लेकिन उनकी हालत क्या है इसका अंदाज़ा इस सरकारी रिपोर्ट से लगाइए जिसके आंकड़ों के अनुसार मुस्लिम कौम की साक्षरता दर काफी कम है। 2001 के आंकड़ों के मुताबिक 13.43 प्रतिशत मुस्लमानों में से 59.1 प्रतिशत लोग ही शिक्षीत हैं। जबकि कुल आबादी में 80.46 प्रतिशत हिंदुओं में साक्षरता दर 65.1 प्रतिशत, 2.34 प्रतिशत क्रीस्चन में से 85.3 प्रतिशत और सिखों में 1.87 में से 69.4 प्रतिशत लोग शिक्षित हैं। यानी आंकड़े ये साफ करते हैं कि मुस्लिम आबादी साक्षरता के मामले में सबसे पीछे है।

वैसे तो हर धर्म और जाती को संरक्षण देने वाले हमारे देश में मुस्लिम आबादी लगभग हर राज्य में है। ऐसे राज्य जहां इनकी तादाद कम है वहां इनके कम शिक्षीत होने की तो कुछ दलीलें दी जा सकती हैं लेकिन वह राज्य जहां मुसलमानों की एक बड़ी तादाद आबाद है वहां भी उनकी शिक्षा का यही आलम है, जो किसी तरह से ठीक नहीं है। जम्मू कश्मीर, असम प. बंगाल, बिहार, यूपी जैसे राज्यो में भी मुसलमानों की शिक्षा का स्तर बहुत नीचे है। जम्मू में 67प्रतिशत में से 47 प्रतिशत शिक्षीत हैं, वहीं असम में ये प्रतिशतता 31 में से 48 की है। बंगाल में 4.,25.2 में से 18.7, बिहार में 16.5 प्रतिशत में से 42 प्रतिशत तथा यूपी में 18.5 में से 47.8 प्रतिशत लोग ही पढ़े लिखे हैं। अब अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जब ऐसे राज्यों में इनकी ये हालत है तो वहां इनका आलम क्या होगा जहां इनकी तादाद बहुत ही कम है।

अब सवाल ये उठता है कि आखिर देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी मानी जाने वाली इस कौम के इतने बड़े पैमाने पर अशिक्षीत होने का क्या कारण है? इस सवाल का जवाब तलाश करने के लिए हमें बहुत पीछे जाना होगा। अगर हम आजादी के बाद से ही इस कौम के हालात पर नज़र डालेंगे तो सच्चाई खुल कर सामने आएगी। महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘हिन्दु और मुस्लिम मेरी दो आंखे हैं। लेकिन वर्तमान हालात बताते हैं कि गांधी की एक आंख की चमक लगातार कम हो रही है। 15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद होने के बाद से ही इस कौम को विकास की वो कड़ी नहीं मिल सकी जो मिलनी चाहिए थी। यहां पर निवास करने वाली दूसरी कौमें हिन्दु, सिख और इसाई जिस गती से बढ़े और जिस गती से बढ़ रहे वो रफ्तार इस कौम ने कभी नहीं पाई। देश विभाजन के वक्त सिख जिस तरह के दंगे हुए उसमें मुस्लामानों और सिखों को ही सबसे ज़्यादा नुकसान उठाना पड़ा। इन्होंने अपने परिवारों को खोया और दंगों में अपना बहुत कुछ बर्बाद होने का मनज़र भी देखने पर मजबूर हुए। लेकिन उसके बाद देश में धीरे-धीरे सिखों के हालात तो सुधरे और उन्होंने विकास की रफ्तार भी पा ली लेकिन मुसलमानों का विकास काल के गर्त में कहीं समा सा गया और ये लगातार सिमटने लगे।

आज भी वह अपने पारंपरिक पेशों में मुफ्लिसी की जिंदगी बिताने पर मजबूर हैं। बड़े उद्योग धंधों और नौकरियों में इनकी तादाद में कोई इज़ाफा नजर नहीं आता। वहीं इनके पुराने उद्योग धंधे चाहे वो कोलकात्ता और कानपुर का चमड़ा उद्योगो हो या फिर भदोही का क़ालीन उद्योग, बनारस का साड़ी उद्योग हो या फिर मऊ के बुनकरों का फ़न सबके सब वक्त गुज़रने के साथ प्राचीन कॉल की दासतान बनते जा रहे हैं। बुनकरों की स्थिति समय के साथ सुधरने की बयाज बिगड़ती ही जा रही है। बड़े उद्योगो में इनकी साझेदारी बस नाम मात्र की नज़र आती है। इस संदर्भ में इनकी शिक्षा को जिम्मेदार बातया जाता है। जो बदकिस्मती से सच्चाई भी है। शायद अशिक्षिता ही वह कारण है जिसकी वजह से आज भी मोची, साइकिल बनाने वाले और कपड़े सिलने वाले रोज़गार इनके जिम्मे रह गए हैं।

आख़िर इन हालात के लिए ज़िम्मेदार कौन है? क्या वो हुकूमतें जिन्होंने इनका बस वोट की ख़ातिर इस्तेमाल किया? या वो ख़ुद ही अपने इन हालात की वजह हैं या फिर वक्फे वक़्फे से उठने वाले मुस्लिम मुख़ालिफ़ वह सुर हैं जिन्होंने इनके क़दमों में बेड़ियां पहना दीं? या फिर वह समाज जहां ये बसते हैं?
अगर ग़ौर करेंगे तो हर कोई इसका ज़िम्मेदार कहीं ना कहीं सभी नज़र आऐंगे। आज़ादी के बाद से शासन में आने वाली हुकूमतें मुसलमानों के इन हालात के लिए ज़िम्मेदार हैं और वह कभी अपना दामन इस कलंक से बचा नहीं सकती हैं। क्योंकि यह एक सच्चाई है कि भारतीय राजनीति में नेताओं के भाग्य का फैसला करने वाले इन लोगों का हाथ हुकूमतों ने बस वोट देने तक ही सीमित कर दिया है। ये चुनावी गणीत पर ज़रूर असर डालते हैं लेकिन इनके वोट से चुनकर आई सरकार इनकी स्थिति पर कोई असर नहीं डालती। उनके लिए सरकार अपने अंदर सिर्फ कमेटियां ही बनाने की ताक़त पाती है। लेकिन उन कमेटियों ने क्या हक़ीक़त बताई और क्या सुझाव दिए इस पर ग़ौर करने या उन्हें लागू करना सरकार के बस से बाहर होता है। कितनी अफसोसनाक बात है कि सच्चर कमिटि जैसे कमेटियां तो गठित कर दी जाती हैं लेकिन इनका लेखा जोखा कागजों में ही सिमट कर रह जाता है। जब कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों के हालात मालूम करने के लिए सच्चर कमेटी का गठन किया तो बड़े दावे हुए, आवाज़ें आईं कि अब मुसलमानों के भी दिन बहुरेंगे। राजेंद्र सच्चर की अगुआई में मुसलमानों की आर्थिक समाजिक और शिक्षिक स्थति को जानने के लिए बनाई गई इस कमेटी ने 30 नवंबर 2006 को जब 403 पन्नों पर आधारित अपनी रिपोर्ट पेश की तभी उम्मीदें जाग रही थीं मगर उसके बाद जो हालात पैदा हुए और जिस तरह से उन सिफारिशात को ठंड़े बस्ते में ड़ाल दिया उसके बाद सरकार की सारी नियत साफ हो कर सामने आ गई। ऐसा लगा जैसे सरकार ने उनके हालात सिर्फ मज़ाक़ बनाने के लिए जाने थे। क्योंकि अगर उसने 2006 के बाद भी उन सुझावों पर विकास की नीव रखा होता तो आज मुसलमानों की तस्वीर कुछ और होती।

यही नहीं कई और कमेटियां बनाई गई हैं उन्होंने मुसलमानों के विकास के प्रति बहुत सुझाव दिए हैं मगर हुकूमतें उस पर अमल करने के लिए राज़ी नहीं हैं। ज़ाहिर है जब इस तरह के हालात होंगे तो उनकी स्थति का बुरा होना तो लाज़मी ही है।

हालात ने इस देश के साथ ख़ूब खेल खेल हैं। एक तरफ तो सरकारें उन पर मेहरबान नहीं ऊपर से जब वह अपनी कुछ मेहनत और जागरूक्ता के आधार पर बढ़ने लगे तो समप्रदायिक दंगों ने उनकी कमर तोड़ कर रख दी। बाबरी मस्जिद की शहादत हो या फिर गुजरात दंगे सब ने इन्हें इस स्थति तक पहुंचाने में अहम रोल अदा किया है।

आधुनिक समय में भी इनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। बात छोटे गांवों की हो या शहरों की इनकी स्थिति में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं हुआ है। इसका कारण यही दंगे और इनके ख़िलाफ बनने वाले हालात ही हैं। छोटे गांवो में रहने वालों की शिक्षा कभी सुविधाओं के अभाव में नहीं हो पाती तो कभी गरीबी इन्हें निरक्षर रहने को मजबूर कर देती है। वहीं बड़े शहरों में रहने वालों को बाटला हाउस जैसे एंकाउटरों से इतना डरा दिया जाता है कि वे घरों से निकलना ही बंद कर देते हैं। और तो और ऐसे हालात में प्रशासन का दोगला रवैया भी उन्हें तंग करता है जिसकी वजह से वह खुद ही अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं। इन्हें हर जगह बेगुनाह होने के बावजूद भी शक की नज़रों का सामना करना पड़ता है।

लेकिन क्या इनकी स्थिति में सुधार असंभव है? इसका जवाब हम सभी अगर भारतीय होकर सोचें तो शायद मिल जाएगा। बस ज़रूरत है थोड़ी जागरूकता की। जागरूकता सरकार के प्रति जागरूकता दकियानूसी ताकतों के प्रति, जागरूकता भाईचारे के प्रति। अगर हम राष्ट्रस्तर की सोच अपना कर देखेगें तो इनके विकास की ज़रूरत को भी समझेंगे। और तब हम एक होकर उस सरकार की रिपोर्ट को भी काग़ज़ों तक ही सीमीत नहीं होने देंगे। तब ये लोग भी अपने देश अपने गांव और अपने शहर में खुद को अलग और भयभीत नहीं महसूस करेंगे बल्कि तब इनमें शिक्षा की वही जोत जलेगी जिनकी वजह से कलाम को पूरा देश जानता है और उनसे प्रेरणा लेता है, लेकिन इसके लिए सभी को आगे आना होगा। ये याद रखने वाली बात ये है कि अगर भारत को विकास की नई ऊंचाईयां हासिल करनी है तो उसे क़ौम, मज़हब, ज़ात-पात और छेत्र और इलाके की राजनिति से ऊपर उठ कर कोशिशें करनी होंगी, याद रहे अगर मुस्लिम समाज या कोई भी समाज पीछे रहता है तो इसका साफ असर भारत के विकास पर पड़ेगा।

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