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बिहार राज्य में काको शरीफ़ एक मज़हबी तारीख़ी जगह है। यहांं गंगा जमुनी तहज़ीब की ज़िन्दा तस्वीरें आपको हर वक़त देखने को मिल जाएंगी। कहा जाता है कि पुराने वक्त़ में काको शरीफ़ एक ऐसा इलाक़ा था, जहां सूफ़ी संतों ने अपने मज़हबी, समाजी और सांस्कृतिक कार्यो द्वारा प्रेम और सहनशीलता का संदेश फैलाया था। उस ज़माने में काको दीन की रौशनी से महरूम था। हिन्द के राबिया बसरी से मारूफ वलिया हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह ने अपनी कोशिशों से दीन की रौशनी फैलाई। इन वर्षो में आपने रिश्तों हिदायत की ऐसी मिसाल पेश की कि यह वीरान इलाक़ा दीन-ए-हक़ का चमन बन गया और आप इस चमन में फूल की तरह खिलते चले गए। आप मारूफ वलिया बड़े ए फ़ैज़ और बूज़ुर्ग वलियागुजरी है।
यहां 500 सदी पुरानी दरगाह है। यह एक ऐसी रूहानी जगह है, जहांं सभी को दिली सुकून मिलता है। आपकी वफ़ात के बाद आपका रूहानी फ़ैज़ तसर्रूफ़ ओ कारामात का सिलसिला आज भी जारी है। लोग आज भी अपनी बीमारियों से निजात हासिल करने के लिए काको शरीफ़ हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह की दरगाह पर आते हैं और फ़ैज़ हासिल करते हैं। हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहिरहमा के आस्ताने में मजहब और धर्म की दीवार कोई मायने नहीं रखती। यहांं लोंगो का सिर्फ एक ही मजहब है और वह है इंसानियत।
ऐसी मान्यता है कि हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहिरहमा के आस्ताने पर मांगी गई हर वाजिफ मुराद जरूर पूरी हो जाती है। वर्ष 1174 में हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा अपनी पुत्री हज़रत दौलती बीबी के साथ काको पहुंची थीं। यहां आने के बाद से ही वह काको की ही रह गईंं। सबसे ख़ास बात गंगा- जमुनी तहजीब का ये मंज़र है, जिसकी आज इस ज़माने में सख़्त ज़रूरत है। यहांं न सिर्फ उर्स के मौके पर बल्कि रोज़ मुख़तलिफ़ मज़हब के लोग अपनी अकीदत के फूल चढ़ाते हैं और मन्नत मांगते हैं। जुमेरात को सभी मज़हब और समाज के अकीदतमंद जमा होते हैं, जिससे यहांं छोटे-मोटे मेले जैसा नज़ारा होता है।
जुमेरात और सालाना उर्स के अलावा साल मे दो बार बड़ी तादात में लोग यहांं आते हैं, जिसमें 50 फ़ीसदी हिन्दू होते हैं। हजरत बीबी कमाल के मजार का काफी पुराना इतिहास है। पिछले 9 साल से प्रतिवर्ष इस मजार पर सूफी महोत्सव का आयोजन हो रहा है। सरकार ने इसे सूफी सर्किट का दर्जा दिया है। सुफी फेस्टिवल के लिए शानदार स्टेज बनकर तैयार। अफगानिस्तान के कातगर निवासी हजरत सैयद काजी शहाबुद्दीन पीर जगजोत की पुत्री तथा सुलेमान लंगर रहम तुल्लाह की पत्नी थी। हज़रत क़ाज़ी शेख शहाबुद्दीन आम लोगों में पीर जगजोत के नाम से जाने जाते हैं। न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे हिन्दूस्तान के बड़े सूफीयों मे एक हैं।
हज़रत मखदूमे बीबी कमाल रहमतुल्ला अलहे का उर्स शऱीफ हर साल की तरह इस साल भी बड़ी ही शानो शौक़त के साथ मनाया जा रहा है। गौरतलब है कि सालाना उर्स के दौरान उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल सहित जम्मू कश्मीर, झारखंड, महाराष्ट्र व नेपाल के विभिन्न शहरों से अकीदतमंद बीबी कमाल मख़दूम साहब के मुरीद शिरकत करने के लिए भारी तादाद में यहां आते हैं। विशेष पकवान के रूप में गुड़ की खीर पकाई जाती है। फातेहा के बाद अकीदतमंदों में उसका वितरण मिट्टी के बर्तन ‘ढकनी’ में किया जाता है। हिंदुस्तान में गंगा-जमुनी तहजीब और सूफी धारा को आगे बढ़ाने में हजरत मखदूमे बीबी कमाल का महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। जायरीन की भीड़ को देखते हुए जिला प्रशासन ने सारी व्यवस्था अच्छी तरह से बनाई थी।
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