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माह-ए-रमजान

SYED ASIFIMAM KAKVI
SYED ASIFIMAM KAKVI
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बंदे को हर बुराई से दूर रखकर अल्लाह के नजदीक लाने का मौका देने वाले पाक महीने रमजान की रूहानी चमक से दुनिया एक बार फिर रोशन हो चुकी है और फिजा में घुलती अजान और दुआओं में उठते लाखों हाथ खुदा से मुहब्बत के जज्बे को शिद्दत दे रहे हैं। रमजानुल मुबारक का मुकद्दस माह इस्लामी कैलेंडर का नवाँ महीना है। हर साल इस माह में रोजे रखना मुसलमानों पर नाजिल फर्जों में से एक अहम फर्ज है। आज से पूरे माह हर बालिग और सेहतमंद मुसलमान पर रमजानुल मुबारक के रोजे रखना फर्ज करार दिया गया है। हदीस के मुताबिक इस मुबारक माह में जन्नात के दरवाजे खुल जाते हैं और शैतान कैद हो जाता है। अर्श से फर्श तक नेकियों और रहमतों की बारिश का ऐसा पुरजोर सिलसिला शुरू होता है जिसका हर मुसलमान को बेसब्री और बेकरारी से इंतजार रहता है। हदीस शरीफ में फर्माया गया है कि रमजान हजरत मोहम्मद सल्लल्लाह अलैहवसल्लम की उम्मत का महीना है। इस माह रोजे रखने वालों को बेइंतहा सवाब मिलता है और इन दिनों में जो मुसलमान शिद्दत के साथ खुदा तआला की इबादत तिलावत करेगा उसके गुनाह ऐसे धुल जाएँगे जैसे साफ पानी में गंदा कपड़ा धुल जाता है।यह रिवायत है कि रोजे रखने वाले मुसलमान कयामत के दिन अल्लाह के नेक बंदों की शक्ल में पहचाने जाएँगे। दुनिया के हर मज़हब में अपने-अपने मज़हबी तरीक़े से लोग रोजा रखते हैं।हर शख़्स अपने-अपने मज़हब की मान्यताओं के तहत क़ायदे-क़ानून का पालन करता है। सब मज़हबों ने रोजा का तशबीहात से ज़िक्र किया है।तुम तुम्हारे दीन पर रहो मैं मेरे दीन पर रहूँ।’ चूंकि इस्लाम मज़हब ला इलाहा इल्लल्लाह को मानता है और हज़रत मोहम्मद (सअवस) को अल्लाह का रसूल (मोहम्दुर्र रसूलल्लाह) स्वीकारता है, इसलिए रोजा मुसलमान पर फ़र्ज़ की शक्ल में तो है ही, अल्लाह की इबादत का एक तरीक़ा भी है और सलीक़ा भी।तक़्वा तरीक़ा है रोजा रखने का। सदाक़त सलीक़ा है रोज़े की पाकीज़गी का। सब्र, सड़क है रोजदार की। ज़कात पुल है रोजदार का। ऐसा पाकीज़ा रोजा रोजदार के लिए दुआ का दरख़्त है।

पहला रोजा ईमान की पहल है। मज़हबी नजरिए से रोजा रूह की सफाई है। रूहानी नजरिए से रोजा ईमान की गहराई है। सामाजिक नजरिए से रोजा इंसान की अच्छाई है।
दूसरा रोजा
रोजा ईमान की कसावट है। रोजा सदाक़त की तरावट और दुनियावी ख़्वाहिशों पर रुकावट है। दिल अल्लाह के ज़िक्र की ख़्वाहिश कर रहा है तो रोजा इस ख़्वाहिश को रवानी देता है और ईमान को नेकी की खाद और पाकीज़गी का पानी देता है। लेकिन रोजा रखने पर दिल दुनिया की ख़्वाहिश करता है तो रोजा इस पर रुकावट पैदा करता है। रोजा ख़्वाहिशों पर क़ाबू का नाम है। पहला रोजा ‘संयम’ और ‘सब्र’ सिखाता है , दूसरा रोजा शफ़ाअत और इनाम है। रोजा सब्र और संयम का प़ैगाम है।
तीसरा रोजा
मंज़िल पर पहुंचना तब आसान हो जाता है जब राह सीधी हो। मज़हबे इस्लाम में रोजा रहमत और राहत का राहबर है। रहमत से मुराद अल्लाह की मेहरबानी से है और राहत का मतलब दिल के सुकून से है। अल्लाह की रहमत होती है तभी दिल को सुकून मिलता है। दिल के सुकून का ताल्ल़ुक चूंकि नेकी और नेक अमल से है। इसलिए जरूरी है कि आदमी नेकी के रास्ते पर चले। रोजा बुराइयों पर लगाम लगाता है और सीधी राह चलाता है।मग़फ़िरत की म़ंजिल पर पहुंचने के लिए सीधी राह है रोजा। यानी रोजा रखकर जब कोई शख़्स अपने गुस्से, लालच, ज़बान, ज़ेहन और नफ़्स पर काबू रखता है तो वह सीधी राह पर ही चलता है।जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है रोजा भूख-प्यास पर तो कंट्रोल है ही, घमंड, फ़रेब, फ़साद, बेईमानी, बदनीयती, बदगुमानी, बदतमीज़ी पर भी कंट्रोल है। वैसे तो रोजा है ही सब्र और हिम्मत-हौसले का पयाम। लेकिन रोजा सीधी राह का भी है ए़हतिमाम। नेकनीयत से रखा गया रोजा नूर का निशान है। अच्छे और सच्चे मुसलमान की पहचान है।

4 रोजा नेकी का छाता है। जिस तरह छतरी या छाता बारिश या धूप से अपने लगाने वाले की हिफ़ाज़त करता है, ठीक उसी तरह रोजा भी रोजादार की हिफ़ाजत की गारंटी है। शर्त यह है कि रोज़ा शरई तरीके से रखा जाए।

5 ‘रोजा’
दुनिया के हर मज़हब में अपने-अपने मज़हबी तरीक़े से लोग रोजा रखते हैं। सब मज़हबों ने रोजा का तशबीहात से ज़िक्र किया है। इस्लाम मज़हब ला इलाहा इल्लल्लाह को मानता है और हज़रत मोहम्मद (सअवस) को अल्लाह का रसूल (मोहम्दुर्र रसूलल्लाह) स्वीकारता है, इसलिए रोजा मुसलमान पर फ़र्ज़ की शक्ल में तो है ही, अल्लाह की इबादत का एक तरीक़ा भी है और सलीक़ा भी।तक़्वा तरीक़ा है रोजा रखने का। सदाक़त सलीक़ा है रोज़े की पाकीज़गी का। सब्र, सड़क है रोजदार की। ज़कात पुल है रोजदार का। ऐसा पाकीज़ा रोजा रोजदार के लिए दुआ का दरख़्त है।

रोजा 6
कुरआने-पाक में अल्लाह को सब्र करने वाले का साथ देने वाला बताया गया है (इन्नाल्लाहा म़अस्साबेरीन’ यानी ‘अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।’) रोजा इम्तहान भी है और इंतजाम भी। सब्र और संयम रोजेदार की कसौटी है इसलिए रोजा इम्तहान है। सब्र की कसौटी पर रोजेदार कामयाब यानी खरा साबित हुआ तो इसका मतलब यह कि उसने आख़िरत का इंतज़ाम कर लिया। इसलिए रोजा इंतज़ाम है। कुल मिलाकर यह कि रोजा ऱहम का हरकारा और सब्र का फौवारा है।

नेकी का सैलाब है रोजा-7
रमजान माह का पहला अशरा रहमत का माना जाता है। यानी शुरुआती दस रोजे किसी दरिया के मानिन्द हैं जिसमें अल्लाह की रहमत का पानी बहता रहता है।रोजादार तक़्वा को अपनाते हुए जब रोजा रखता है तो वह बेशुमार नेकियों का हक़दार हो जाता है। ये नेकियां सदाकत और सदाअत का सैलाब बनकर उसके लिए बख़्शीश की दुआ अल्लाह से करती हैं।

‘रोज़ा’ अल्लाह का अदब भी है-8
‘रोजा’ रोशनी की लकीर और नेकी की नजीर है। रमजान का तो हर रोजा खुशहाली का खजाना और पाकीजगी का पैमाना है। रमजान की बरकतों की तहरीर का ये कारवां माशाअल्लाह आठवें रोजे तक पहुंच गया है। दरअसल, रोजा अल्लाह का अदब भी है और फ़जल की तलब भी है।

जकात रोजे की ताकत है-9 रोज़ा’
जकात का जिक्र हर मजहब में है। इस्लाम मजहब में भी जकात की बड़ी अहमियत है। क़ुरआने-पाक के पहले पारे अलिफ़-लाम-मीम की सूरह अल बकरह की आयत नंबर तिरालीस (आयत-43) में अल्लाह का इरशाद है ‘और नमाज कायम रखो और जकात दो और रुकूअ करने वालों के साथ रुकूअ करो।’जकात, दोस्ती का दस्तावेज तो है ही रोजे का जेवर भी है। जकात का जेवर रोजे की जैब-ओ-जीनत बढ़ाता है। जकात में दिखावा नहीं होना चाहिए। जकात का दिखावा, ‘दिखावे’ की जकात बन जाएगा। दिखावा शैतानियत का निशान है, इंसानियत की पहचान नहीं।

रहमत का शामियाना-10’रोजा’
तीस रोजे दरअसल तीन अक्षरों पर मुश्तमिल हैं। शुरुआती दस दिनों यानी रोजों का अशरा ‘रहमत’ का बीच के दस रोजों का अशरा ‘मग़फ़िरत’ का और आख़िरी दस रोजों का अशरा दोज़ख़ से ‘निजात’ का है।
सैय्यद आफिस इमाम काकवी

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